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आखिर कैसे रुकेगा निजी अस्पतालों में मरीजों का शोषण, जिम्मेदार कौन?

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दुर्भाग्य है कि चिकित्सा पेशा भी इससे वंचित नहीं है। चर्चा है कि महज आर्थिक लाभ के उद्देश्य से चिकित्सक महंगी जांच और अनावश्यक दवाइयां लिख रहे हैं। जानलेवा ऑपरेशन करने और अंगों के कारोबार तक से बाज नहीं आ रहे हैं...

चिकित्सा पेशा या स्वास्थ्य व्यवसाय कोई सामान्य पेशा नहीं है, बल्कि यह व्यक्तिगत जीवन और जनस्वास्थ्य से जुड़ा एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है, जिसमें थोड़ी-सी भी लापरवाही किसी के जीवन पर भारी पड़ सकती है। वहीं, अपना या अपने परिवार का इलाज करवाने के चक्कर में यदि कोई व्यक्ति या परिवार लूट-पिट जाए तो यह भी प्रशासनिक नजरिए से अनुचित है। और ऐसे ही जरूरतमंद लोगों के पक्ष में सरकार और समाजसेवी संस्थाओं दोनों को अवश्य खड़ा होना चाहिए। 

यही वजह है कि जनस्वास्थ्य से जुड़े चिकित्सा पेशा या स्वास्थ्य व्यवसाय को सिर्फ कारोबारी लाभ के नजरिए से नहीं देखा जा सकता है, बल्कि यह एक सामाजिक और नैतिक उत्तरदायित्व से जुड़ा हुआ विषय (पेशा) है, जिसे जनसेवा की भावना से किया जाए तो सरकार और संस्था दोनों को यश मिलेगा। भारतीय सभ्यता व संस्कृति तो शुरू से ही श्सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाश् की पक्षधर रही है। लेकिन देश में लागू नई आर्थिक नीतियों से उपजी नैतिक व कानूनी महामारी के दौर में जीवन का हर क्षेत्र प्रभावित हो रहा है।

दुर्भाग्य है कि चिकित्सा पेशा भी इससे वंचित नहीं है। चर्चा है कि महज आर्थिक लाभ के उद्देश्य से चिकित्सक महंगी जांच और अनावश्यक दवाइयां लिख रहे हैं। जानलेवा ऑपरेशन करने और अंगों के कारोबार तक से बाज नहीं आ रहे हैं। प्रशासनिक भ्रष्टाचार और न्यायिक जटिलताओं से ऐसे बहुत कम मामले हैं जो कोर्ट की दहलीज तक पहुंच पाते हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्य सरकारों से यह कहना कि वे प्राइवेट अस्पतालों में मरीजों और उनके परिजनों के श्शोषणश् को रोकने के लिए उचित नीतिगत फैसला लें, देर आयद दुरुस्त आयद जैसा है। जनहित के इस सवाल पर राज्य सरकारों को तुरंत एक्शन में आना चाहिए।

दरअसल, एक जनहित याचिका में आरोप लगाया गया था कि प्राइवेट अस्पतालों और उनकी फार्मेसी में एमआरपी से ज्यादा कीमत वसूली जा रही है। लिहाजा, कोर्ट ने इन अस्पतालों पर खुद से प्रतिबंध लगाने से इनकार किया और कहा कि ये संविधान में राज्य सूची का विषय है, इसलिए राज्य सरकारें ही इस पर व्यापक दृष्टिकोण से विचार कर सकती है। वही उचित गाइडलाइंस बना सकती हैं। इसमें संतुलित दृष्टिकोण अपनाना होगा, जिससे न तो मरीजों और उनके परिजनों का शोषण हो और न ही प्राइवेट अस्पतालों के कामकाज पर बेवजह प्रतिबंध लगे।

बता दें कि यह जनहित याचिका सिद्धार्थ डालमिया (कानून के छात्र) ने दायर की है। इसमें कहा गया है कि श्उनकी मां को पिछले साल कैंसर हुआ था और वह अब ठीक हो चुकी है। लेकिन उनके इलाज के दौरान प्राइवेट अस्पतालों में जबरन महंगी दवाएं खरीदनी पड़ीं। लिहाजा, इनकी गुहार है कि मरीजों और परिजनों को यह आजादी मिले कि वे अपनी पसंद की फार्मेसी से दवाएं, मेडिकल इक्विपमेंट आदि खरीद सकें। हालांकि, केंद्र ने कोर्ट में कहा है कि मरीजों पर विशेष फार्मेसी से दवाएं, मेडिकल इक्विपमेंट लेने की बाध्यता नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देना सरकार की जिम्मेदारी है। भले ही बढ़ती आबादी के कारण सरकार को प्राइवेट अस्पतालों की मदद लेनी पड़ी, लेकिन इसमें मरीजों का शोषण नहीं होना चाहिए। हालांकि, निजी हॉस्पिटल्स में जिस तरह से कैशलेस इलाज का प्रचलन बढ़ा है, इस धंधे में बड़ी-बड़ी निजी कैशलेस चिकित्सा बीमा कम्पनियां सामने आयी हैं, उन्होंने अस्पतालों के पैनल जारी किए हैं, उससे एक संगठित लूट और इसी चक्कर में मानव स्वास्थ्य, जनस्वास्थ्य से खिलवाड़ बढ़ा है। निजी अस्पतालों में तो चुपके चुपके नई नई दवाइयों का परीक्षण तक मानव शरीर पर हो जाता और किसी को भनक तक नहीं लगती। कुछ निजी अस्पताल व उनके डॉक्टर तो रक्त और मानव अंगों के अवैध कारोबार तक में शामिल हैं। ऐसे आरोप अक्सर मीडिया में उछलते रहते हैं।

वहीं, जब से केंद्र सरकार गरीबों को आयुष्मान भारत कार्ड बनाने लगी है और 5 लाख रुपये तक के मुफ्त इलाज की सुविधा देने लगी है, तब से नए नए घोटालों और अनैतिक करतबों की बाढ़ आ चुकी है। इन सबके दृष्टिगत सरकार भले ही एहतियाती कार्रवाई करती आई है, फिर भी निजी चिकित्सा सेवा प्रदाताओं में इन नियमों का खौंफ नहीं है। क्योंकि अक्सर चिकित्सक हड़ताल या दवा कारोबारी हड़ताल की धमकियां देकर हेल्थ सिंडिकेट से जुड़े लोग सरकार और प्रशासन को ब्लैकमेल कर लेते हैं। लेकिन सवाल फिर वही कि मानव स्वास्थ्य से खिलवाड़ कब तक।

मसलन, जिस तरह से सिजेरियन बेबी का प्रचलन समाज में बढ़ रहा है, उससे कामकाजी महिलाएं भी भरी जवानी में बर्बाद हो रही हैं। ऐसे ही कई अन्य अस्वास्थ्यकर प्रचलन समाज में बढ़े हैं। किंतु हमारा स्वास्थ्य प्रशासन जनहित के दृष्टि से उतना संवेदनशील नहीं बना है, जितना उसे होना चाहिए। अन्यथा मिलावटी खाद्य पदार्थ, मिलावटी दवाइयों की बिक्री की बात सामने नहीं आती। याचिकाकर्ता ने भी दिलचस्प घपले की ओर इशारा किया है, लिहाजा कोर्ट का निर्देश समयोचित है। राज्य सरकारें जितनी जल्दी जग जाएं, केंद्र सरकार भी यथोचित जांच एजेंसी बनाए, अन्यथा इस गोरखधंधे पर काबू पाना मुश्किल है। गंदा है पर धंधा है, वाला जुमला से चिकित्सा पेशा जितना दूर रहे, उतनी उसकी साख बची रहेगी।

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