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प्रयागराज: यमुना तट पर गृहस्थी और सौंदर्य प्रसाधनों का मेला सिमटने वाला है

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प्रयागराज (राजेश सिंह)। आधुनिक युग में पुरखों की दी हुई रीति, परंपरा और संस्कृति को लोग भूलते जा रहे हैं। प्रयागराज में यमुना नदी किनारे बलुआ घाट पर लगने वाला कार्तिक मेला अपवाद स्वरूप है, जहां पहुंचने वाले शहरी और ग्रामीणों के मन का सीधे जुड़ाव श्गृहस्थीश् से हो जाता है। यह एक ऐसा मेला है जहां आंखों के सामने रसोई में दैनिक कामकाज की परंपरागत वस्तुएं पड़ती हैं। साथ में धर्म और वैदिक संस्कृति का संगम भी रहता है।

बलुआघाट में देसी और अनूठा मेला

ज्ञंतजपा डमसं 2025 पूरी तरह से देसी और अपने आप में अनूठा मेला। कार्तिक मेला ऐसी संस्कृति हर साल लेकर आता है जो लोगों को पुराने जमाने की सैर कराता है और दैनिक जरूरतों की सामग्री खरीद का अवसर भी देता है। इस खूबसूरत मेले की परंपरा को बता रही है यह खबर है।

आधुनिकता में संस्कार सिखाता है मेला

सबसे पहले तो यह जानना जरूरी है कि कार्तिक मेला में ऐसा खास क्या है जो प्रत्येक दिन हजारों लोगों को अपनी ओर खींचता है। दरअसल यहां छोटी-छोटी दर्जनों दुकानें लगती हैं। इनमें आधुनिकता कहीं नहीं रहती। दुकानों पर केवल पत्थर के सिलबट्टे, बांस की दौरी, सूप, हाथ वाले पंखे, लोहे की कड़ाही, चिमटा, लोहे के खल मूसल, कप प्लेट, परात, घिसना, चाय की छन्नी, हवन कुंड, शृंगा के समान, बच्चों के खिलौने, चूड़ियां, सिंदूर ही ज्यादातर बिकते हैं।

रसोई और घर में उपयोग की सभी वस्तुएं यहां उपलब्ध 

ज्ञंतजपा डमसं 2025 रसोई और घर में उपयोग होने वाली यह सभी वस्तुएं पुरातन काल में तो यहीं बनती और बिकती थी लेकिन अब अधिकतर दुकानदार माल को कानपुर, रीवा और सहारनपुर आदि जिलों से मंगाते हैं। जबकि खरीददार यहीं के स्थानीय रहते हैं। बांस की डलिया के दुकानदार प्रेमचंद बताते हैं कि ग्राहक खूब आते हैं बड़ी और छोटी डलिया ले जाते हैं। हालांकि मोलभाव के चक्कर में कुछ ग्राहक बिना खरीदे ही लौट जाते हैं।

आमदनी इतनी कि कई माह का हो जाता है गुजारा 

डलिया, दौरी और सूप बेचने वाली एक वृद्ध महिला सुंदरी बताती हैं कि पिछले 20 साल से इसी तरह दुकान लगाती आ रही हैं। कहा कि यह व्यापार विरासत में मिला है। उनके पूर्वज यहां बांस की डलिया का व्यापार करते रहे हैं। पहले तो डलिया, दौरी, सूप और हाथ वाली पंखे यहीं बनाये जाते थे। साल भर में एक महीने तक लगने वाले कार्तिक मेले में इतनी आमदनी हो जाती थी कि अगले तीन-चार महीने तक घर का खर्च चल जाता था।

खाने में स्वाद, परंपरा में ताजगी लाते सिलबट्टे

घरों में अब मिक्सी का जमाना है। बच्चों से सिलबट्टे के बारे में पूछें तो शायद नहीं बता पाएंगे। छोटे-छोटे कुटे हुए निशान वाले लाल, सफेद और स्लेटी पत्थर के सिलबट्टों के प्रति लोगों की रुचि भले ही अब कम हुई हो लेकिन कार्तिक मेला में पहुंचने वाले इसकी खरीद करते हैं तो परंपरा में ताजगी आ जाती है। सिलबट्टों का उपयोग मसाला और चटनी पीसने में होता है। बेशक इसमें मेहनत लगती है और समय खर्च होता है लेकिन खाने का स्वाद सिलबट्टे पर पिसी हुई चटनी और मसाले ही बढ़ाते हैं।

25 लोग सिलबट्टे का करते हैं व्यापार 

बलुआघाट चौराहा से बारादरी तक लगभग 25 लोग सिलबट्टे का व्यापार करते हैं। इसी तरह से कड़ाही बेचने वाले सतीश केसरी ने बताया कि कुछ माल यहीं घर में बना लेते हैं, शेष फैंसी आइटम कानपुर से मंगाते हैं। एक अन्य दुकानदार होरीलाल ने बताया कि कार्तिक मेला ही ऐसा है, जब ग्राहक ज्यादा आ जाते हैं। एक महीने का मेला होता है जबकि दीपावली के बाद यह तेजी पकड़ता है। मध्यम वर्गीय या निम्न आय वर्गीय लोगों में लोहे की कड़ाही के प्रति रुचि ज्यादा है। रसोई के यह सभी आइटम लोगों को अपने संस्कार से भी जोड़ते हैं।

सौंदर्य प्रसाधन के भी सामान उपलब्ध 

सजने संवरने के अब आधुनिक तरीके हैं। ब्यूटी पार्लर इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं लेकिन संस्कार को जीवंतता देता है बलुआघाट का मेला, जहां सिंदूर, चूड़ी, कंगन, बिंदी, लिपस्टिक, छोटे शीशे, कंघे, मोती की माला आदि की बहार रहती है। जिस तरह इन दुकानों पर महिलाओं भीड़ और उत्सुकता रहती है, सजने संवरने के लिए अपनी-अपनी पसंद के अनुसार खरीदारी करती हैं उससे परंपरा, आधुनिकता पर हावी रहती है। 

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