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लाल बहादुर शास्त्री: किराये की कोठरी से तय किया संसद तक का सफर, साइकिल व स्कूटर रही सवारी

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प्रयागराज (राजेश सिंह)। छोटे कद के बड़े इरादों वाले नेता का नाम लेते ही देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का नाम सामने आ जाता है। उनका बचपन बहुत ही संघर्षों में बीता, लेकिन गुदड़ी के इस लाल के इरादे इतने बड़े और पक्के थे कि उरुवा की सभा में दिया गया ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा, देश का भविष्य बन गया।

भारी लाव लश्कर और लग्जरी वाहनों के काफिले के साथ लकदक चलने वाले मौजूदा दौर के नेताओं को देखकर आम लोगों के लिए यह विश्वास करना सहज नहीं कि भारतीय लोकतंत्र में ऐसे जनप्रतिनिधि भी रहे हैं, जिनकी सादगी ही उनकी ताकत रही। सांसद या मंत्री बनने के बाद छोटा सा मकान भले बनवा लिया, लेकिन संसद तक के संघर्ष की कहानी किराये की कोठरी से ही शुरू हुई। देश व प्रदेश की सत्ता के केंद्र में साख बनाने वाले प्रयागराज के ऐसे नेताओं में पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, मसुरियादीन, जनेश्वर मिश्र, सत्य प्रकाश मालवीय आज भी अपनी सादगी के लिए याद किए जाते हैं।

छोटे कद, बड़े इरादों वाले थे लाल बहादुर

छोटे कद के बड़े इरादों वाले नेता का नाम लेते ही देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का नाम सामने आ जाता है। उनका बचपन बहुत ही संघर्षों में बीता, लेकिन गुदड़ी के इस लाल के इरादे इतने बड़े और पक्के थे कि उरुवा की सभा में दिया गया ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा, देश का भविष्य बन गया।

गृहमंत्री रहते हुए प्रधानमंत्री का संदेश लेकर वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष सुभाष कश्यप से मिलने जीएन छात्रावास में पहुंचे गए। चुनावी प्रक्रिया में कई सुधार के सूत्रधार रहे सुभाष कश्यप इस घटना का जिक्र करना नहीं भूलते। शास्त्री जी के बेटे अनिल शास्त्री कहते हैं, प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद वह घर आए तो मैंने शयन कक्ष में कारपेट लगाने की बात कही। इस पर शास्त्री जी ने कहा था, जिस देश में लाखों लोगों के पास घर नहीं हैं, उसके प्रधानमंत्री के लिए कारपेट बिछाना अच्छा नहीं होगा।

अनिल शास्त्री आगे बोले, प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने हम लोगों के लिए कार खरीदी थी, जिसकी कीमत 12 हजार थी। जबकि, उनके खाते में सिर्फ सात हजार ही थे, शेष पांच हजार रुपये उन्होंने बैंक से कर्ज लिए थे, जिसे निधन होने तक वह चुका नहीं पाए थे। माताजी ने उस कर्ज को पेंशन से चुकाया।

शास्त्री परिवार के करीबी किशोर वार्ष्णेय ने आजादी की लड़ाई के दौरान जेल में शास्त्री जी के बंद होने की घटना सुनाई। कहा, परिवार चलाने के लिए उन्हें सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी की ओर से हर महीने 35 रुपये भेजे जाते थे। जेल में मिलने के लिए पहुंचीं पत्नी ललिता शास्त्री से उन्होंने पूछा, 35 रुपये में खर्च चल जाते हैं। एक सामान्य महिला की तरह उन्होंने जवाब दिया, दस रुपये बचा भी लेती हूं। इसके बाद लाल बहादुर शास्त्री ने सोसाइटी पार्टी को पत्र लिखा, उनके परिवार का खर्च 25 रुपये में ही चल जाता है। इसलिए हर महीने 25 रुपये ही भेजे जाएं।

प्रधानमंत्री रहने के दौरान बच्चे बस से ही स्कूल जाते थे। सरकारी वाहन के उपयोग पर प्रतिबंध था। लाल बहादुर शास्त्री के जीवन से जुड़े कई आदर्श हैं, जिनके पालन का संकल्प भले ही कई नेता ले लेते हों, लेकिन उनका पालन करना मुमकिन नहीं होता है।

पं.नेहरू के लिए भी ‘महाशय’ थे

मसुरियादीन देश के पहले प्रधानमंत्री पं.जवाहर लाल नेहरू के साथ ही इलाहाबाद संसदीय क्षेत्र से सांसद चुने गए मसुरियादीन को लोग सम्मान में महाशय कहा करते थे। पं.नेहरू भी उन्हें महाशय ही कहते थे तो यह अकारण नहीं था। आज भी उनकी सादगी के चर्चे होते हैं। मसुरियादीन का कटरा में पुश्तैनी मकान था। वरिष्ठ वामपंथी नेता हरिश्चंद्र द्विवेदी कहते हैं, उनके जैसी सादगी कम ही देखने को मिलती है। अधिवक्ता रमाशंकर शर्मा बताते हैं, खादी की मोटी धोती और कुर्ता पहनकर वह कटरा चौराहे पर सड़क किनारे टेबल पर बैठ जाते थे। लोग वहीं उनसे मिलने के लिए आते और हर विषय पर चर्चा होती। उनके बेटे शशिप्रकाश भी चायल (कौशाम्बी) से सांसद चुने गए। सादगी के मामले में उन्होंने भी पिता की राह चुनी।

किराये के मकान में रहकर, चंदा जुटाकर बने सांसद

इलाहाबाद और फूलपुर दोनों ही संसदीय सीट से सांसद रहे जनेश्वर मिश्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्र राजनीति से ही काफी लोकप्रिय हो गए थे। मानसरोवर चौराहे पर जुलूस पर लाठीचार्ज में वह गंभीर रूप से घायल हुए थे। इन्हीं संघर्षों की वजह से उन्हें छोटे लोहिया के नाम से पुकारा गया। पं.जवाहर लाल नेहरू के खिलाफ डॉ.राममनोहर लोहिया के चुनाव में जनेश्वर मिश्र ने मुख्य भूमिका निभाई, जिससे उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई। इसका परिणाम रहा कि 1967 में वह चुनाव जीतने में सफल रहे। इलाहाबाद संसदीय सीट से भी सांसद हुए और रेल समेत कई विभाग में मंत्री रहे।

इन चुनावों में उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे नेताओं को शिकस्त दी, लेकिन उनके लिए चुनाव लड़ना कभी आसान नहीं रहा। जनेश्वर मिश्र के पड़ोसी व चुनाव संचालन का हिस्सा रहे हरिश्चंद्र द्विवेदी कहते हैं, नया कटरा स्थित किराये की एक कोठरी में रहकर ही उन्होंने सियासी सफर शुरू किया।

सुबह जो भी मिलने आता, उनसे वाहनों में पेट्रोल भराने का इंतजाम किया जाता। गंगापार में दिनभर प्रचार के बाद शाम को शहर में घूम-घूमकर चंदा मांगते। सांसद बनने के बाद उन्होंने उसी मकान में से 65 वर्गमीटर खरीद लिया। जनेश्वर मिश्र के साथ रहे शंकर सरन भी बताते हैं कि उनकी जीवन शैली बहुत साधारण थी। उनसे कोई भी मिल सकता था।

सभासद से शुरुआत करके केंद्रीय मंत्री बने सत्यप्रकाश, स्कूटर रही पहचान

सत्य प्रकाश मालवीय की सादगी की आज भी चर्चा होती है। उन्होंने लोकनाथ की गलियों से सियासी सफर की शुरुआत की और सभासद बनने से लेकर देश के सबसे बड़े सदन संसद तक पहुंचे। वह चंद्रशेखर के काफी करीबी थे। समाजवादी नेता और लोकतंत्र सेनानी केके श्रीवास्तव कहते हैं, जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने तो सत्यप्रकाश पेट्रोलियम समेत सात विभागों के मंत्री रहे।

इस सरकार को बनाने और चलाने में इनकी बड़ी भूमिका रही। इससे पहले वह डॉ.मुरली मनोहर जोशी को हराकर मेयर बने तो कई बार विधायक तथा प्रदेश सरकार में नगर विकास समेत कई विभागों के मंत्री भी रहे। इतना बड़ा कद होने के बावजूद उनका पूरा जीवन सादगी से भरा रहा।

वकालत करने के लिए वह स्कूटर से ही कचहरी जाते थे। मेयर रहते हुए भी उन्होंने निजी कारणों से कभी महापालिका की गाड़ी का इस्तेमाल नहीं किया, स्कूटर ही उनकी पहचान थी। उनके साथ वकालत करने वाले हरिश्चंद्र द्विवेदी कहते हैं, मालवीय जी बहुत ही सामान्य तरीके से रहते थे।

प्राथमिक शिक्षक से केंद्रीय मंत्री बने रामपूजन

अभी ज्यादा दिन नहीं गुजरे जब रामपूजन पटेल को तेलियरगंज स्थित आवास पर साधारण वेशभूषा में देखा जा सकता था। प्राथमिक शिक्षक से उनके केंद्रीय मंत्री बनने और सादगी से रहने के चर्चे अक्सर होते हैं। रामपूजन मात्र 29 वर्ष की आयु में 1969 में विधायक चुन लिए गए थे। अमर उजाला के साथ एक मुलाकात में उन्होंने कहा था, 1969 का चुनाव मात्र 3100 रुपये में जीता था। इसके बाद वह तीन बार सांसद रहने के साथ प्रदेश और केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री भी रहे। दरअसल उनका चुनाव लोग लड़ते थे।

रामपूजन कहते थे, ‘तब और अब में बहुत परिवर्तन आ गया है। तब 70 लाख रुपये की छूट थी, लेकिन मैं इतना पैसा खर्च नहीं कर सकता था, इसलिए चुनाव लड़ने से मना कर दिया था। मेहनत की कमाई से कौन इतना पैसा कमा सकता है। संसद में पूंजीपतियों का बोलबाला बढ़ता जा रही है, संघर्ष के लिए कोई स्थान नहीं है।

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