महादेव महावीर सत्संग समिति सोरांव में श्रीराम कथा का छठवां दिन
मेजा, प्रयागराज (राजेश शुक्ला)। महादेव महावीर मंदिर में चल रहे श्री राम कथा के छठवें दिन की कथा में कथावाचक पंडित भोलानाथ पाण्डेय ने राम वन गमन की मार्मिक कथा का श्रवण कराया। पति और पत्नी के मर्यादा की कथा सुनाई।
सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुंदर छाला।
सीताजी ने उस परम सुंदर हिरन को देखा, जिसके अंग-अंग की छटा अत्यन्त मनोहर थी। (वे कहने लगीं-) हे देव! हे कृपालु रघुवीर! सुनिए। इस मृग की छाल बहुत ही सुंदर है। लाने का आदेश देती हैं।
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला।
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा।।
हे प्रिये! हे सुंदर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले! सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा, इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ, तब तक तुम अग्नि में निवास करो।
पांचवें दिन नर और नारी के भेद बताया।
सीता वन जाने से पहले माता कौशल्या से वन जाने की आज्ञा लेने जाती है। मां मुझे तू अपने आंचल में छुपा ले.. मार्मिक कथा में श्रोता भावविभोर हो गोता लगाते रहे। लक्ष्मण माता सुमित्रा के पास पहुंच श्री राम के साथ वन जाने की आज्ञा लेने पहुंचे। माता और पुत्र की कथा सुनाई। माता सुमित्रा ने लक्ष्मण को आदेश दिया कि वन में मेरे श्रीराम को अकेला मत छोड़ना उसकी सेवा करना। लक्ष्मण और उर्मिला का प्रसंग को सुनाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। उर्मिला ने कहा कि सीता वन की बेटी है, मैं राजा की बेटी हूं, सीता का ख्याल रखना। उर्मिला ने आरती कर लक्ष्मण को तिलक लगाकर कहा तू ही मेरे देवता, तू ही मेरी मंदिर है.. लक्ष्मण ने अपनी माला उर्मिला को पहनाकर कहा कि जिस दिन यह माला मुरझा जाते समझना में प्रभु की सेवा में समर्पित हो गया। वन गमन के दौरान राम, सीता और लक्ष्मण गंगा घाट पर पहुंच केवट से पार जाने के लिए नाव मांगी।
मांगी नाव न केवट आना। के पश्चात वाणी को विराम दिया।
मानस पियूसा आस्था दुबे ने श्रीराम कथा रूपी मंदाकिनी में डुबकी लगाने का कार्य करते हुए कहा कि भगत सिंह को फांसी पर चढ़ाया जा रहा था तो वह दौड़कर जेल पहुंचीं और जेलर से कहां कि भगत सिंह से मिलने आई है तो भगत सिंह ने मना कर दिया कि कहानी से श्रीराम कथा का शुभारंभ करते हुए-सीताराम वंदना, राधेश्याम वंदना, अंजनी के लाल की बार बार वंदना..। पांचवें दिन की कथा के विश्राम से आगे से शुरू करते हुए कहा कि-हरि अनन्त, हरि कथा अनंता है। श्रीराम कथा एक पका आम का फल है। रामकथा का मानव जीवन में उतारना चाहिए। मांगी नाव..न केवट आना, कहहि तुम्हार मरमु मैं जाना। संसार को सब कुछ देने वाला पहली बार कुछ मांगी है।
श्री राम और केवट के बीच हुए प्रसंग को सुनाया।
छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई।
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई।।
जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई (मेरी नाव तो काठ की है)। काठ पत्थर से कठोर तो होता नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जाएगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जाएगी, मैं लुट जाऊँगा अथवा रास्ता रुक जाएगा, जिससे आप पार न हो सकेंगे और मेरी रोजी मारी जाएगी। मेरी कमाने-खाने की राह ही मारी जाएगी।
केवट राम राजयसु पावा, पानी कठौता भरि लै आवा..।
हे नाथ! मैं चरण कमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा, मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता। हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगंध है, मैं सब सच-सच कहता हूँ। लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारें, पर जब तक मैं पैरों को पखार न लूँगा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारूँगा। केवट के प्रेम में लपेटे हुए अटपटे वचन सुनकर करुणाधाम श्री रामचन्द्रजी जानकीजी और लक्ष्मणजी की ओर देखकर हँसे।
कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई।
बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू।।
कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी केवट से मुस्कुराकर बोले भाई! तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाए। जल्दी पानी ला और पैर धो ले। देर हो रही है, पार उतार दे।
एक बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भवसागर के पार उतर जाते हैं और जिन्होंने (वामनावतार में) जगत को तीन पग से भी छोटा कर दिया था (दो ही पग में त्रिलोकी को नाप लिया था), वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी (गंगाजी से पार उतारने के लिए) केवट का निहोरा कर रहे हैं। प्रभु के इन वचनों को सुनकर गंगाजी की बुद्धि मोह से खिंच गई थी (कि ये साक्षात भगवान होकर भी पार उतारने के लिए केवट का निहोरा कैसे कर रहे हैं), परन्तु (समीप आने पर अपनी उत्पत्ति के स्थान) पदनखों को देखते ही (उन्हें पहचानकर) देवनदी गंगाजी हर्षित हो गईं। (वे समझ गईं कि भगवान नरलीला कर रहे हैं, इससे उनका मोह नष्ट हो गया और इन चरणों का स्पर्श प्राप्त करके मैं धन्य होऊँगी, यह विचारकर वे हर्षित हो गईं।) केवट श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर कठौते में भरकर जल ले आया।
’अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा।
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं।।
अत्यन्त आनंद और प्रेम में उमंगकर वह भगवान के चरणकमल धोने लगा। सब देवता फूल बरसाकर सिहाने लगे कि इसके समान पुण्य की राशि कोई नहीं है।
चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित स्वयं उस जल (चरणोदक) को पीकर पहले (उस महान पुण्य के द्वारा) अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनंदपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को गंगाजी के पार ले गया। निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी (नाव से) उतरकर गंगाजी की रेत (बालू) में खड़े हो गए। तब केवट ने उतरकर दण्डवत की। (उसको दण्डवत करते देखकर) प्रभु को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं। पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनंद भरे मन से अपनी रत्न जड़ित अँगूठी (अँगुली से) उतारी। कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए।
हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी। हे नाथ! हे दीनदयाल! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिर चढ़ाकर लूँगा। प्रभु श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी ने बहुत आग्रह (या यत्न) किया, पर केवट कुछ नहीं लेता। तब करुणा के धाम भगवान श्री रामचन्द्रजी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा किया। हम रामजी के रामजी हमारे हैं, के पश्चात श्रीराम कथा को विश्राम दिया।
इसके पश्चात अयोध्या से पधारे कथावाचक अजय शास्त्री ने राजा बलि और वामनदेव भगवान की कथा का वाचन करते हुए मांगी नाव न केवट आना की चौपाई से श्रोताओं को अविरल भक्ति की रसधार का श्रवणपान कराया। कथा का संचालन पंडित विजयानंद उपाध्याय ने किया। उक्त अवसर पर केशव प्रसाद शुक्ल, नागेश्वर प्रसाद शुक्ल, लक्ष्मी शंकर शुक्ल, आशीष शुक्ल, अवधेश शुक्ल, नारायण दत्त शुक्ल, दिनेश शुक्ल, राजू शुक्ल, संजय शुक्ल, संतोष शुक्ल, बालि शुक्ल, गुरू शुक्ल, कृष्ण कुमार शुक्ल, मोचन शुक्ल, श्लोक शुक्ल, पिंकू शुक्ल, भूपेष शुक्ल, विमलेश शुक्ल, भोला शुक्ल, बृजेश कुमार, लल्लू शुक्ल, श्रीकांत दुबे सहित भारी संख्या में लोग उपस्थित रहे।