विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) की मेन्टल हेल्थ ऑफ चिल्ड्रन एंड यंग पीपल नामक ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 10 से 19 वर्ष का प्रायः प्रत्येक सातवां बच्चा किसी−न−किसी प्रकार की मानसिक समस्या से जूझ रहा है...
आजकल की भाग−दौड़ वाली दुनिया में मानसिक समस्याएं बड़ी तेजी से लोगों को अपना शिकार बनाती जा रही हैं। इसका प्रभाव इतना तीक्ष्ण और विकराल होता है कि इससे न तो कोई देश बचा है, और न ही कोई राज्य... इसके घातक प्रभाव से अछूता आज न तो कोई गांव है, न कोई शहर और न ही कोई गली−मोहल्ला। इसका शिकार बच्चे, किशोर, बड़े, वृद्ध, स्त्री और पुरुष सभी हो रहे हैं, लेकिन आंकड़ों की बात करें तो विशेष रूप से, बच्चों और किशोरों में यह समस्या कुछ ज्यादा ही जटिल होती जा रही है। गौरतलब है कि इसके कारण बच्चों की मासूमियत खत्म होती जा रही है। उनकी फूल−सी मुस्कराहट कहीं खोती जा रही है। वे बेहद गुस्सैल होते जा रहे हैं। वे बात−बात पर क्रोध करने लगे हैं। उनकी बात नहीं सुनी और मानी जाए तो वे आपे से बाहर हो जाते हैं। यहां तक कि कई बार तो अपने माता−पिता और अभिभावक के ऊपर हमले करने से भी वे नहीं चूकते। जाहिर है कि ऐसे में उनके माता−पिता को यह समझ में ही नहीं आता कि जो बच्चे कुछ महीने, साल पहले तक मासूमियत से भरे बिल्कुल सामान्य व्यवहार वाले थे, हर पल खेलते−कूदते, हंसते−मुस्कराते, गाते−गुनगुनाते और आयु के अनुरूप शरारतें करते रहते थे, आखिर क्या कारण है कि अचानक उनका व्यवहार इस प्रकार बदल गया कि वे उन्हें बिल्कुल सुनना और मानना ही नहीं चाहते।
इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाए कि खेलने−कूदने और खाने−पीने की आयु में देश के बच्चों और किशोरों में बैचेनी, डिप्रेशन और मानसिक तनाव जैसी समस्याएं आज गंभीर से गंभीरतम रूप लेती जा रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) की श्मेन्टल हेल्थ ऑफ चिल्ड्रन एंड यंग पीपलश् नामक ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 10 से 19 वर्ष का प्रायः प्रत्येक सातवां बच्चा किसी−न−किसी प्रकार की मानसिक समस्या से जूझ रहा है। इन समस्याओं में अवसाद, बेचौनी और व्यवहार से जुड़ी समस्याएं शामिल हैं। एक अनुमान के मुताबिक मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी लगभग एक तिहाई समस्याएं 14 साल की उम्र से पहले शुरू हो जाती हैं, जबकि इनमें से आधी समस्याएं 18 वर्ष से पहले सामने आने लगती हैं। तात्पर्य यह कि जब हमारे मासूम बाल्यावस्था से किशोरावस्था की ओर कदम बढ़ना आरंभ करते हैं, सामान्यतः उसी दौरान मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी अलग−अलग समस्याएं उन्हें अपना शिकार बनाना शुरू कर देती हैं। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 07 बच्चों में से एक बच्चा डिप्रेशन का शिकार है। आंकड़ों की बात करें तो देश के 14 प्रतिशत बच्चों का मानसिक स्वास्थ्य खराब है। इसी प्रकार, श्इंडियन जर्नल ऑफ साइकिएट्रीश् में वर्ष 2019 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार भारत में 05 करोड़ से अधिक बच्चे मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं से जूझ रहे थे।
गौरतलब है कि इनमें से ज्यादातर बच्चे एंग्जाइटी और डिप्रेशन का सामना कर रहे थे। यूनिसेफ के एक अनुमान के मुताबिक कोरोना महामारी के बाद ये आंकड़े पहले की तुलना में कई गुना अधिक बढ़े हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि पूरी दुनिया में 30 करोड़ से भी अधिक लोग एंग्जाइटी से जूझ रहे हैं और 28 करोड़ लोग डिप्रेशन का सामना कर रहे हैं। विज्ञान आधारित दुनिया भर में प्रसिद्ध जर्नल श्द लैंसेट साइकिएट्रीश् में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार ऑस्ट्रेलिया में 75 प्रतिशत टीनएजर्स एंग्जाइटी और डिप्रेशन से जूझ रहे हैं। वहीं, 10 से 18 वर्ष की आयु के 64 प्रतिशत वयस्कों को तीन से अधिक बार खराब मानसिक स्वास्थ्य का दंश झेलना पड़ा है। विशेषज्ञों के अनुसार किशोरावस्था के दौरान लड़के−लड़कियों में कई प्रकार के हॉर्माेनल और शारीरिक बदलाव होते हैं। इसके कारण उनके सोच और व्यवहार में बदलाव आता है। इनके अतिरिक्त, उसी दौरान उन लड़के−लड़कियों को बोर्ड परीक्षाओं एवं कॅरियर को लेकर कोर्स सिलेक्शन जैसे दबावों और उहापोह वाली परिस्थितियों से भी गुजरना पड़ता है। ऐसे में, यदि उन्हें घर और स्कूल में उनके मनोनुकूल अथवा कहा जाए कि सहयोगी परिवेश नहीं मिले तो ये दबावों और उहापोह वाली परिस्थितियां प्रायः एंग्जाइटी और डिप्रेशन का रूप ले लेती हैं। इसी प्रकार, जो बच्चे लगातार पढ़ाई−लिखाई नहीं करते हैं, वे परीक्षाओं के आने पर अक्सर दबाव में आ जाते हैं।
वहीं, मनोचिकित्सकों का मानना है कि आजकल बच्चों में फेलियर हैंडल करने की क्षमता भी कम होती जा रही है। कभी−कभी इसके कारण जेनेरिक भी हो सकते हैं। इतना ही नहीं, हमारी प्रतिदिन की आदतों में शामिल हो चुके फास्ट फूड, शुगरी ड्रिंक्स और सोशल मीडिया जैसे तत्व भी भी एंग्जाइटी और डिप्रेशन का कारण बन रहे हैं। साल 2024 में नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक अध्ययन में यह बात सामने आई थी कि जंक फूड, अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड एवं फास्ट फूड खाने से व्यक्ति में एंग्जाइटी और डिप्रेशन का जोखिम कई गुना बढ़ जाता है। उक्त अध्ययन के अनुसार इसका सबसे अधिक खतरा वयस्कों को होता है, क्योंकि फास्ट फूड और अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड के सबसे बड़े उपभोक्ता भी वही होते हैं। ऐसे ही, नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में 2022 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार चीनी से बने अथवा शुगरी ड्रिंक्स भी का सेवन किशोरों के खराब मानसिक स्वास्थ्य की बड़ी वजह बन रहा है। जाहिर है कि एनर्जी ड्रिंक या कोल्डड्रिंक के नाम पर मिल रहे इस प्रकार के पेय पदार्थ एंग्जाइटी और डिप्रेशन का कारण बन सकते हैं। वहीं, साइंटिफिक जर्नल फ्रंटिर्यस में 2023 में प्रकाशित एक अध्ययन में यह खुलासा हुआ था कि जो टीनएजर प्रतिदिन 07 घंटे से अधिक समय तक स्क्रीन पर व्यतीत करते हैं, उन्हें डिप्रेशन का शिकार बनने की आशंका अन्य टीनएजर्स की तुलना में दोगुने से भी अधिक होती है।
उक्त अध्ययन में यह भी बताया गया था कि यदि कोई सोशल मीडिया पर प्रतिदिन एक घंटे बिता रहा है तो प्रत्येक घंटे के हिसाब से व्यक्ति में डिप्रेशन के लक्षण प्रतिवर्ष 40 प्रतिशत तक बढ़ जाते हैं। इसी प्रकार, बीएमसी मेडिसिन में 2010 में प्रकाशित एक अध्ययन में यह पता चला था कि जो लड़के−लड़कियां किसी तरह के खेल, शारीरिक व्यायाम या फिजिकल एक्टिविटी में भाग नहीं लेते, उनके डिप्रेशन का शिकार बनने की आशंका अधिक होती है। उक्त अध्ययन में यह भी यह भी मालूम हुआ था कि प्रतिदिन एक घंटे शारीरिक व्यायाम या फिजिकल एक्टिविटी करने से डिप्रेशन एवं एंग्जाइटी का जोखिम 95 प्रतिशत तक कम हो जाता है। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि बच्चों का स्पोर्ट्स टाइम बढ़ाने और स्क्रीन टाइम घटाने का हरसंभव प्रयास किया जाए। लेकिन जो बच्चे पहले ही एंग्जाइटी और डिप्रेशन का शिकार बन चुके हैं, उन्हें ठीक करने के लिए तत्काल सभी आवश्यक कदम उठाए जाने की जरूरत है। वैसे, देखा जाए तो मस्तिष्क का विकास लाइफस्टाइल एवं अनुभव के आधार पर होता है। इसलिए बच्चों को रियलिस्टिक बनाएं। उन्हें जीवन की वास्तविकताओं से अवगत कराएं। उनके साथ जीवन के उतार−चढ़ाव को साझा करें। साथ ही, प्रतिदिन दो बार परिवार के सभी सदस्य एक साथ भोजन करें और यदि दो बार संभव नहीं हो तो कम−से−कम एक बार का भोजन पूरा परिवार साथ में करें।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस दौरान मोबाइल और टीवी जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से दूरी बनाकर रखें। ऐसा करने से परिवार में सामंजस्य बढ़ेगा। गौरतलब है कि बच्चों से जुड़े मामलों से संबंधित शोध एवं अध्ययन करने के लिए प्रसिद्ध शोध संस्थान श्मरडोक चिल्ड्रेन्स रिसर्च इंस्टीट्यूटश् के तत्वावधान में किए गए इस अध्ययन में यह बताया गया है कि इन मामलों में क्लिनकिल केयर से अधिक जरूरत बच्चों को इन मानसिक बीमारियों से बचाने को लेकर स्ट्रेटजी बनाए जाने की है। वहीं, डब्ल्यूएचओ एवं यूनिसेफ की श्मेन्टल हेल्थ ऑफ चिल्ड्रन एंड यंग पीपलश् नामक रिपोर्ट में बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए समुदाय आधारित मॉडल तैयार करने की बात कही गई है।