Ads Area

Aaradhya beauty parlour Publish Your Ad Here Shambhavi Mobile

बिहार में बजा चुनावी बिगुल, किसकी पूरी होगी आस, किसकी टूटेगी उम्मीद

sv news

पटना। हर बार की तरह बिहार विधानसभा का मौजूदा चुनाव उन सभी लोगों के लिए उम्मीदें लेकर आया है, जो खुद चुनाव मैदान में उतरने जा रहे हैं.. उनके समर्थकों की भी उनकी कामयाबी से आस लगी है। कार्यकर्ताओं का बड़ा वर्ग ऐसा भी है, जिसकी सेहत उस दल की जीत या हार पर निर्भर करती है, जिससे उसकी प्रतिबद्धता जुड़ी होती है। लेकिन सबसे ज्यादा उम्मीद पहली बार खुद चुनावी मैदान में उतरने जा रहे प्रशांत किशोर को है। उम्मीद तो तेजस्वी यादव को भी है। उन्हें लगता है कि इस बार उनके नाम के बाद अतीत में लगे उप विशेषण से मुक्ति मिल जाएगी। उम्मीद उस बीजेपी को भी है, जो अपने सहयोगी की तुलना में संख्या बल में ताकवतर होने के बावजूद छोटे भाई की भूमिका निभाने को मजबूर रही है। आस तेजप्रताप को भी है कि वे लालू-राबड़ी की छाया से दूर होने के बावजूद चुनावी मैदान में कमाल दिखाने में वे सफल रहे हैं। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को भी ऐसी ही उम्मीदें हैं। उसे भावी सरकार में हिस्सेदारी की आस है। लेकिन अन्य दलों की तुलना में उसकी उम्मीद कुछ अलग भी है। उसे लगता है कि अगर इस चुनाव में तेजस्वी की अगुआई वाले उसके गठबंधन ने मोदी-नीतीश की जोड़ी को पटखनी दे दी तो दिल्ली के ताज तक की उसकी यात्रा आसान हो जाएगी।

उम्मीदें खोखली नहीं होतीं। उनका कुछ ठोस आधार भी होता है। इस लिहाज से देखें तो हर पार्टी और उसके बड़े नेताओं की आस के कुछ ठोस आधार हैं। तेजस्वी यादव को लगता है कि उनके गठबंधन में शामिल कांग्रेस के चलते उनके पारंपरिक मुस्लिम-यादव गठजोड़ को राज्य के सवर्ण तबके के एक वर्ग का वोट मिल सकता है। पिछले चुनाव में उनका गठबंधन नीतीश की अगुआई वाले गठबंधन की तुलना में महज साढ़े सोलह हजार के करीब वोटों से ही पिछड़ गया था। उन्हें लगता है कि इस बार इस कमी को ना सिर्फ उनका गठबंधन पूरा कर लेगा,बल्कि आगे भी निकल जाएगा। लेकिन उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि पिछली बार चिराग पासवान की अगुआई वाली लोक जनशक्ति पार्टी एनडीए से अलग होकर लड़ रही थी। तब उनका अघोषित और घोषित-दोनों उद्देश्य नीतीश कुमार को पटखनी देना था। इसमें वे पूरी तरह कामयाब तो नहीं हुए, अलबत्ता नीतीश के नतीजों को नुकसान पहुंचाने में कामयाब रहे। नीतीश की पार्टी को महज 43 सीटों से संतोष करना पड़ा था। लेकिन इस बार चिराग नीतीश के साथ हैं। अंदरखाने में भले ही वे नीतीश का साथ नहीं दे रहे हों, लेकिन करीब दस फीसद पासवान वोटरों का आधार एनडीए को मुहैया करा रहे हैं। इसलिए तेजस्वी को इस बार कहीं ज्यादा मेहनत करनी होगी। उन्हें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के ठोस वोट बैंक में गहरी सेंध लगानी होगी। तेजस्वी के लिए राहत की बात यह है कि सीमांचल की 28 सीटों पर उन्हें चुनौती देने वाली एआईएम इस बार उनसे गठबंधन करने के लिए लालायित है। अगर बात बन जाती है तो तेजस्वी के गठबंधन के लिए चुनावी वैतरणी थोड़ी आसान हो जाएगी। लेकिन तेजस्वी की राह का एक बड़ा रोड़ा उनके बड़े भाई तेजप्रताप हैं। जिन्हें उनकी दो बहनों का परोक्ष साथ भी मिल रहा है। इससे बिहार के उनके कोर वोटरों में संदेश गया है कि परिवार में सबकुछ ठीक नहीं है। अगर तेजस्वी के साथ यादव युवाओं का एक वर्ग खड़ा हो गया तो ओबैसी के आने से मिलने वाले फायदे जितना तेजस्वी को नुकसान उठाना पड़ सकता है। 

रही बात नीतीश कुमार की तो इस बार का चुनाव एक तरह से उनका आखिरी चुनाव है। हालांकि पिछली बार यानी 2020 में जब वे चुनावी चक्रव्यूह में फंसे नजर आ रहे थे तो उन्होंने कुछ सभाओं में पिछले ही चुनाव को आखिरी बता दिया था। यह बात और है कि इस बार अभी तक ऐसा उन्होंने कोई संदेश नहीं दिया है। लेकिन बिहार के सियासी और लोक गलियारों में जिस तरह उनके स्वास्थ्य को लेकर चर्चाएं हैं, उससे माना जा रहा है कि इस बार का चुनाव एक तरह से उनका आखिरी चुनाव होगा। राजनीतिक दुनिया में यह भी माना जा रहा है कि इस बार वे बीजेपी से यह गारंटी चाहेंगे कि उनके बेटे निशांत का नेतृत्व स्थापित हो जाए। निशांत ने कुछ महीने पहले राजनीतिक सक्रियता दिखाकर ऐसा संकेत भी दिया था। हालांकि कुछ अरसे से उन्होंने सियासी चुप्पी ओढ़ ली है। उनके इस रूख से माना जा रहा है कि बीजेपी से अंदरखाने में किसी ठोस बिंदु  पर बातचीत हो चकी है। हो सकता है कि निशांत विधानसभा का चुनाव ना लड़ें। लेकिन वे चुनाव बाद विधान परिषद में ठीक उसी तरह आ सकते हैं, जैसे उनके पिता आए। याद कीजिए, 2005 के जिस विधानसभा चुनाव में विजय के साथ नीतीश ने लालू राज को उखाड़ फेंका था, उस बार भी उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा था और विधान परिषद के सदस्य के नाते उन्होंने सरकार की अगुआई की थी। इस बार के चुनाव में जनता दल यू एकजुट तो दिखेगा, लेकिन चुनाव मैदान में सबसे ज्यादा सवालों का सामना अशोक चौधरी को करना होगा। जिनके भ्रष्टाचार की गाथा को प्रशांत किशोर लोकमानस के बीच पहुंचा चुके हैं। उनकी ही तर्ज पर बीजेपी की ओर से उप मुख्यमंत्री बने मुरेठाधारी सम्राट चौधरी के लिए भी खुद का बचाव करना मुश्किल होगा, जिनके शैक्षिक प्रमाण पत्र और हत्या के एक आरोप में  बरी होने को प्रशांत किशोर ने बिहार का सवाल बनाकर रख दिया है। 

बीजेपी इस बार चाहती है कि वह राज्य में ब़ड़े भाई की भूमिका में रहे। बड़े भाई की भूमिका में आने के बाद ही वह राज्य की सर्वाेच्च पार्टी बन सकती है। 1967 में समाजवादियों के साथ उसने जहां भी सरकार बनाई, उन राज्यों में बाद के दिनों में वह ना सिर्फ नंबर एक बन गई,बल्कि साथी समाजवादी दूर कहीं पीछे छूटते नजर आए। मध्य प्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा, हरियाणा और कर्नाटक इसके उदाहरण हैं। लेकिन बिहार में अब भी वह खुद के दम पर अपना वजूद स्थापित करने से दूर है। इस बार बीजेपी चाहेगी कि राज्यमें उसकी अगुआई में सरकार बने। इसके लिए उसने अपने दो बड़े कद्दावर रणनीतिकारों धर्मेंद्र प्रधान और विनोद तावड़े को मैदान में उतार दिया है। दोनों ने बिहार में अपने ढंग से ऑपरेशन शुरू कर दिया है। मैथिली की लोक गायिका मैथिली ठाकुर को बीजेपी एक तरह से अपना उम्मीदवार घोषिकर ही चुकी है। सत्ता पर काबिज होने और राज्य की नंबर एक सियासी पार्टी बनने के लिए मोदी-शाह के युग में पार्टी ने नई रणनीति अख्तियार की है। वह लोकप्रिय चेहरों को अपने साथ जोडने में देर नहीं लगाती। वैचारिक रूप से विरोधी रहे लोगों को भी अपने पाले में लाने में उसे गुरेज नहीं रहा। बशर्तें कि उनके आने से पार्टी को दूरगामी राजनीतिक फायदा मिलता दिख रहा हो। मैथिली ठाकुर का अतीत ऐसा नहीं है। मिथिला के लोक रंग में पली मैथिली एक तरह से भारतीय जनता पार्टी की पारंपरिक हिंदुत्व की राजनीति की नजदीकी ही लगती हैं। चुनाव के दौरान बीजेपी ऐसे कई और चेहरों पर दांव लगा सकती है।  

बीजेपी को उम्मीद अपने मजबूत रणनीतिक वोट बैंक पर है। अति पिछड़ों और सवर्ण तबके में उसकी पकड़ अच्छी है। कभी पिछड़ावादी राजनीति जिस समुदाय को भूराबाल यानी भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला यानी कायस्थ कहकर हिकारत का भाव दिखाती थी, उसे यह वर्ग भूला नहीं है। हालांकि हाल के दिनों में बीजेपी की ओर से पिछड़ावादी राजनीति को बढ़ावा देने और उसी समुदाय से नेतृत्व उभारने के चलते सवर्ण तबके का एक वर्ग नीतीश-बीजेपी जोड़ी से नाखुश भी है। लेकिन यह भी तय है कि जैसे इस वर्ग को लगेगा कि राष्ट्रीय जनता दल की अगुआई वाला गठबंधन जीत रहा है, एकजुट होकर बीजेपी-नीतीश गठबंधन को टूटकर वोट डालेगा। मुसहर और अति दलित  जातियां बीजेपी के साथ नजर आ रही हैं। बिहार की राजनीति में कोईरी-कुर्मी की जोड़ी को लवकुश कहा जाता रहा है। नीतीश बेशक अपनी बिरादरी कुर्मी के ही नेता नहीं माने जाते, लेकिन कुर्मी समुदाय उन्हें ही अपना नेता मानता है। कुशवाहा यानी कोईरी वर्ग के नेता उपेंद्र कुशवाहा इसी गठबंधन में हैं। चिराग भी मजबूती के साथ खड़े हैं। लिहाजा जाति और धर्म की कीमियागिरी वाली बिहारी राजनीति में बीजेपी की अगुआई वाले गठबंधन के लिए यह जातीय मसाला बड़ी काम की चीज है। 

इस बीच कई लोगों की उम्मीद की किरण प्रशांत किशोर बनकर उभरे हैं। ऐसा माना जा रहा है कि उन्हें सिर्फ सवर्ण तबके के युवाओं का समर्थन हासिल है। लेकिन जमीनी स्तर पर निगाह रखने वाले राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बेशक प्रशांत किशोर के समर्थक युवाओं में सबसे बड़ी संख्या सवर्ण युवाओं की है। लेकिन अन्य वर्ग के भी पढ़े-लिखे युवा भी प्रशांत किशोर के साथ हैं। उन्हें लगता है कि भ्रष्टाचार, जातिवाद और धर्म केंद्रित राजनीति में प्रशांत किशोर बिहार के लिए उम्मीद की नई किरण हैं। जिस तरह 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में राजनीतिक और चुनावी विश्लेषक अरविंद केजरीवाल को विशेष तवज्जो नहीं दे रहे थे, कुछ वैसी ही सोच प्रशांत किशोर को लेकर भी दिख रही है। लेकिन जिस तरह नतीजों में अरविंद केजरीवाल ने लोगों और चुनाव विश्लेषकों को चौंकाया था, हो सकता है कि बिहार की जनता प्रशांत किशोर को लेकर वैसे ही देश-दुनिया को चौंकाने का मौका दे सकती है। इससे बिहार में अपनी साख को दांव पर लगा रहा हर दल चिंतित भी है और परेशान भी। वैसे प्रशांत किशोर का मानना है कि 243 सदस्यीय विधानसभा में या तो उन्हें 150 सीटें मिलेंगी या फिर दस-पंद्रह। इस लिहाज से देखें तो प्रशांत किशोर जमीनी स्तर की बात कर रहे हैं। हो सकता है कि नतीजे कुछ ऐसे ही रहें। वैसे अपना आकलन है कि वे बिहार की राजनीति में सेंध लगाने में कामयाब रहेंगे, लेकिन सरकार बनाने के जादुई आंकड़े को छू पाना उनके लिए कठिन रहने वाला है। बिहार की धरती लोकतंत्र की जननी रही है। आधुनिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया यहां भले ही देश के बाकी हिस्से की तरह पूरी होती रही हो, लेकिन जाति और धर्म के खांचे में बैठी होने के चलते वह खासा बदनाम भी रही है। प्रशांत किशोर से शुरू में उम्मीद बढ़ी कि वे ऐसी ही राजनीति करेंगे। लेकिन पार्टी गठन के बाद जिस तरह उन्होंने धर्म विशेषकर मुसलमान समुदाय के लोगों को तवज्जो देने की बात करनी शुरू की, नई तरह की राजनीति की उम्मीद जताए बैठे लोगों को उनसे थोड़ी निराशा भी हुई। इस वजह से उनकी चुनौती बढ़ी भी है।  

चुनाव नतीजों के बाद किसी की उम्मीद कामयाब दिखेगी तो किसी की टूटती दिखेगी। लेकिन एक शख्स ऐसा अब भी है, जिनकी उम्मीद फिलहाल टूटती नजर आ रही है। उपेंद्र कुशवाहा को लेकर उनके समर्थकों को आस थी कि जल्द ही वे केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान बना पाने में कामयाब रहेंगे। लेकिन चुनावों की घोषणा के साथ ऐसा होना संभव नहीं रहा।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

Top Post Ad