आज आपको बिहार के अलबेले नेता लालू यादव की कहानी बताते हैं जिनका मर्सियाँ राजनीति में कितनी बार लिखा जा चुका है पर हर बार उन्होंने दोगुनी ताकत के साथ राजनीति में अपना कमबैक किया है..
पटना का मिलर हाई स्कूल एक बच्चा पहुंचा एडमिशन के लिए। साथ में कोई अभिभावक नहीं था। हाई स्कूल के प्रिंसिपल ने पिछली कक्षाओं की डिग्री देखी। बहुत प्रभावित नहीं हुए। तो बच्चे से पूछने लगे कि बताओ तुम्हारी हॉबी क्या है? बच्चे ने कहा मिमिक्री करता हूं। मास्टर साहब ने तुरंत फरमाइश कर दी। कोई डायलॉग बोलकर सुनाओ। बच्चे ने डायलॉग बोला और गुरु जी इतने खुश हो गए कि झट से एडमिशन दे दिया। बच्चे का नाम लालू प्रसाद यादव। वही जो आगे चलकर बिहार के मुख्यमंत्री बने। एक ज़माना था कि बिहार में एक जुमला गूंजता था दृ जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू। लालू ने खुद इसे गढ़ा था। हिन्दुस्तान की राजनीति के अलबेले नेता लालू यादव, चार दशक की सियासत में शून्य से आसमान तक नापने वाले लालू यादव, जिनका अंदाज सबसे अलग है और बातें सबसे जुदा। ठेठ देसी अंदाज में जनता के साथ सीधा संवाद करने वाले देश के एकलौते ऐसे राजनेता लालू, जो अपनी सभाओं में मजाकिया बातें करते, चुटकुले सुनाकर लोगों को हंसाते, अपनी बातों की पोटली से निकालकर ऐसे ऐसे जुमलों के तीर बरसाते, जिन्हें सुनकर लोग तालियां बजाने पर मजबूर हो जाते। बिहार की राजनीति में लालू यादव का जन्म और उनका अंदाज अंदाज ए बयां और आम लोगों के साथ जोड़ने की उनकी विधा का अपना एक इतिहास रहा है। लेकिन पिछले 20 साल से राजद सीएम पद के सपने को तरस रही है। इस बार उस सपने का बोझ अब तेजस्वी यादव के कंधों पर है। क्या आरजेडी को अपना मुख्यमंत्री मिलेगा? क्या राबड़ी देवी के बाद तेजस्वी यादव अबकी बार इतनी सीटें अपने गठबंधन के साथ ला पाएंगे कि वो बिहार के मुख्यमंत्री बन जाएं? इन सवालों से आरजेडी भी जूझ रही है और तेजस्वी भी और उधर तेज प्रताप अलग ही राह पकड़े हुए हैं। ऐसे में आज आपको बिहार के अलबेले नेता लालू यादव की कहानी बताते हैं जिनका मर्सियाँ राजनीति में कितनी बार लिखा जा चुका है पर हर बार उन्होंने दोगुनी ताकत के साथ राजनीति में अपना कमबैक किया है।
चंद्रशेखर का फोन और सीएम की कुर्सी
मार्च 1990 के बिहार विधानसभा चुनावों में जनता दल के जीत जाने की स्थिति में लालू अपने मुख्यमंत्री बनने की संभावना को लेकर निश्चित नहीं थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह लालू यादव का समर्थन नहीं कर रहे थे। वे एक दलित नेता को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने के इच्छुक थे। बिहार की सियासत में अलग ही खेल चल रहा था। लेकिन लालू तो जैसे ठान ही चुके थे कि आलाकमान का फैसला या फरमानों जो हो सीएम की कुर्सी पर तो विडाउट एनी इफ और बट उन्हें ही बैठना है। इस दिलचस्प किस्से का ज़िक्र संकर्षण ठाकुर ने अपनी किताब ‘द ब्रदर्स बिहारी’ में किया है।
लालू एक ऐसा चुनाव करवाने में लग गए जो उन्हें उसी प्रकार से जीतना था, जिस प्रकार वे आगे कई चुनाव जीतनेवाले थे। अपने खिलाफ जाने वाले वोटों का विभाजन करके। उन्होंने बलिया के दबंग नेता चंद्रशेखर से लगभग एक छोटे बच्चे की तरह शिकायत भी की और मदद की गुहार लगाई। उन्होंने कहा कि यह राजा हमारी संभावनाओं को खत्म करने पर तुला हुआ है। ‘‘कृपया हमारी मदद कीजिए, वरना वीपी सिंह अपने आदमी को बिहार का मुख्यमंत्री बना देंगे। चंद्रशेखर, बिना शक, वीपी सिंह से इतनी नफरत करते थे कि उनकी किसी भी इच्छा का विरोध कर सकते थे। उन्होंने लालू यादव को आश्वासन दिया कि वे इस मामले में कुछ करेंगे। जिसके बाद बिहार की सियासत में एक नया मोड़ आया। जिस दिन नेता के चुनाव के लिए जनता दल के विधायकों की बैठक थी, वहां अचानक मुख्यमंत्री पद के दो के बजाय तीन दावेदार प्रकट हो गए -रघुनाथ झा चंद्रशेखर के उम्मीदवार के रूप में दौड़ में शामिल हो गए थे। निस्संदेह वे मुख्यमंत्री पद के गंभीर उम्मीदवार नहीं थे। लेकिन वे वहां सिर्फ विधायक दल के वोटों का विभाजन करने आए थे, ताकि लालू यादव को फायदा हो जाए। झा को अपने मिशन में कामयाबी भी मिली। वोट जाति के आधार पर विभाजित हो गए, हरिजनों ने रामसुंदर दास के लिए वोट किया, सवर्णों ने रघुनाथ झा का साथ दिया। नतीजा लालू मामूली अंतर से जीत गए।
गवर्नर के पीछे पीछे एयरपोर्ट दौड़े लालू
अब लालू विधायक दल के नेता हो चुके थे। लेकिन लालू के शपथ को लेकर भी अड़चने आने लगी थी। लालू की चतुराई से केंद्रीय मंत्री अजीत सिंह तिलमिलाए हुए थे। वे बिहार के राज्यपाल मोहम्मद युनूस सलीम के पास पहुंचे और कहा- लालू के चुनाव पर जब तक दिल्ली की मुहर न लग जाए, तब तक शपथ न दिलवाएं। यूनुस दुविधा में थे, लालू उन्हें लगातार फोन कर रहे थे। वे अजीत सिंह की बात भी नहीं टाल सकते थे। क्योंकि अजीत सिंह, वीपी सिंह के दूत थे। अजीत के पिता चौधरी चरण सिंह यूनुस के गुरु थे। ऐसे में यूनुस ने दिल्ली की उड़ान भरने का फैसला किया। लेकिन ये खबर जैसे ही लालू के पास पहुंचती है लालू राज्यपाल युनूस के पीछे पीछे एयरपोर्ट के लिए निकल जाते हैं। वो रास्ते भर राज्यपाल को कोसते हुए कहते हैं इस गवर्नर को राइट और रॉन्ग समझाना पड़ेगा। इसको ड्यूटी बताना पड़ेगा। इलेक्टेड आदमी का ओथ कैसे नहीं करा रहा है? लेकिन जब तक लालू एयरपोर्ट पहुंचे मामला हाथ से निकल चुका था। राज्यपाल की फ्लाइट उड़ चुकी थी। गुस्साए लालू ने सबसे पहले डीप्टी पीएम देवीलाल को फोन किया। लालू ने कहा कि क्या चौधरी साहब आपके राज में ये क्या हो रहा है। हम चुने हुए सीएम हैं और अजीत सिंह के कहने पर गवर्नर शपथ से पहले ही भाग गए। ये सुनते ही देवीलाल भड़क गए और उन्होंने राज्यपाल से बात करते हुए कहा कि पटना लौटकर लालू को शपथ दिलवाएं।
माई हथुआ राज मिल गईल
10 मार्च 1990, पटना का गांधी मैदान, 5000 की भीड़ और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की प्रतिमा के ठीक नीचे सीएम की शपथ। यह पहला ऐसा मौका था जब राजभवन के प्रसार से बाहर कोई मुख्यमंत्री शपथ ले रहा था। अब तक बिहार में सत्ता ज़्यादातर ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार समाज के पास रही थी। सीएम बनने के बाद जब पहली बार अपनी मां से मिलने पहुंचे तो मां को बताया माई हम मुख्यमंत्री बन गई। लालू की मां ने पूछा इ का होला तब उनके सीएम बेटे ने समझाया ए माई इ हथुआ महाराज से बड़ा होला। लालू की मां ने निराशा के भाव में कहा जा दे बाकी सरकारी तो नानू मिलल। गोपालगंज के फुलवरिया गांव में रहने वाली लालू की मां मुख्यमंत्री पद की ताकत और उसके रुबाब को नहीं जानती थी। लेकिन उन्होंने अपने आसपास नाते रिश्तेदारों के गांव में देखा होगा कि सरकारी नौकरी के क्या मायने हैं। सरकारी नौकरी में भरे पड़े सवर्ण समुदाय के लोगों की ठाट बाट।
भूरा बाल से लेकर माई बाप तक
जिस साल मंडल को लेकर बवाल मचा था उसी बरस मार्च महीने में लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। मंडल के समर्थन और विरोध में जब आंदोलन अपने पीक पर था तब लालू यादव ने अपनी सभाओं में बयान दिया भूरा बाल साफ करो। उस दौर को कवर करने वाले पत्रकार बताते हैं कि यह नारा बिहार में जनता दल और लालू यादव के समर्थकों के लिए एक टैगलाइन बन गया था। लेकिन वक्त बदला और साल 2025 में
तेजस्वी यादव ने ही कहा था कि अब उनकी पार्टी माई बाप की पार्टी बन चुकी है। बाप में बी यानी बहुजन, ए यानी अगड़ा, ए यानी आधी आबादी और पी यानी पुअर, गरीब। तेजस्वी यादव इसी माई-बाप समीकरण के सहारे 2025 बिहार विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करना चाहते हैं। जैसा कि उनके पिता ने लंबे समय तक एमवाई समीकरण के जरिए किया था। लेकिन क्या यह सिर्फ जाति समीकरण की देन थी जिसने लालू यादव को सत्ता में बनाए रखा और ना सिर्फ सत्ता में बनाए रखा बल्कि उनके नाम की हनक पैदा की।
बहरहाल, पटना में दानापुर-खगौल रोड नामक एक सड़क है। शताब्दी स्मारक पार्क के पास से लगी इस सड़क से दानापुर-पाटलिपुत्र रोड की एक और सड़क शुरू होती है। इसी के चलते इस इलाके का नाम सगुण मोड़ पड़ गया है। सड़कों पर आने वाले मोड़ अप्रत्याशित होने का अंदेशा लेकर आते हैं। बिहार की राजनीति के किंगमेकर कहे जाने वाले लालू की राजद के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। उनका राजनैतिक करियर सगुण मोड़ पर आकर तो वर्षों पहले ही रुक गया लेकिन राजद की नई पीढ़ी के लिए भी स्थिति माकूल नहीं है।