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अर्बन नक्सल अब खुलकर सामने आने लग

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इस पूरी घटना की घोर निंदा आवश्यक है. न केवल इसलिए कि हिंसा हुई, बल्कि इसलिए भी कि लोकतांत्रिक विरोध की पवित्रता भंग हुई। प्रदूषण के खिलाफ लड़ाई को किसी भी प्रकार की अतिवादी राजनीति से मुक्त रखना होगा...

दिल्ली में रविवार को हुए प्रदूषण-विरोधी प्रदर्शनों का उद्देश्य जितना वैध था, उसकी परिणति उतनी ही दुर्भाग्यपूर्ण। राजधानी की हवा विषैली हो चुकी है, नागरिकों का आक्रोश स्वाभाविक है और सरकारों से कड़े कदमों की अपेक्षा भी पूरी तरह जायज। परन्तु जिस प्रकार यह प्रदर्शन हिंसक हुआ, मिर्च-स्प्रे का उपयोग किया गया, पुलिसकर्मियों को चोट पहुँचाई गई और सबसे गंभीर बात कि एक माओवादी कमांडर हिडमा के पोस्टर लहराए गए, वह न केवल कानून-व्यवस्था के लिए चुनौती है बल्कि सजग लोकतांत्रिक नागरिकता की मूल भावना पर प्रहार भी है।

प्रदूषण पर चिंता जताने का लोकतांत्रिक अधिकार और नक्सलवाद का प्रचार दो बिल्कुल अलग चीज़ें हैं, जिन्हें किसी भी परिस्थिति में एक-दूसरे से मिलाया नहीं जा सकता। हिडमा जैसा व्यक्ति, जो दशकों तक सुरक्षा बलों के लिए घातक रहा, अनेक निर्दाेष ग्रामीणों की मौत का कारण बना और हिंसा की राजनीति को बढ़ावा देता रहा, यदि उसके पोस्टर राजधानी की सड़कों पर लहराए जाते हैं, तो यह लोकतंत्र का गंभीर उपहास है। चाहे यह किसी “छोटी टुकड़ी” का कृत्य रहा हो या किसी सुनियोजित समूह का, यह कृत्य किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं है।

सबसे पहले निंदा उस हिंसा की होनी चाहिए जो प्रदर्शनकारियों ने अपनाई। मिर्च-स्प्रे का इस्तेमाल, बैरिकेड तोड़ना, सड़क अवरोध, एम्बुलेंस जैसे आपात वाहनों को रोकना, ये सब लोकतांत्रिक विरोध के दायरे में आते ही नहीं। संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है, पर यह स्वतंत्रता दूसरों की सुरक्षा और अधिकारों को चोट पहुँचाने की अनुमति नहीं देती। पुलिसकर्मी भी इंसान हैं, वह रोज़ नागरिकों की सुरक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डालते हैं। उन पर इस तरह हमला पूरी तरह निंदनीय है।

दूसरी ओर, यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि सत्ता पक्ष इस पूरे घटनाक्रम को केवल “अर्बन नक्सल” कथा तक सीमित कर राहत की साँस न ले। प्रदूषण वास्तव में एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल बन चुका है। दिल्ली-छब्त् की हवा ऐसी है कि सुबह की सैर अब स्वास्थ्य के लिए उपयोगी नहीं, बल्कि नुकसानदायक हो चुकी है। हर साल सरकारें समितियाँ बनाती हैं, घोषणाएँ करती हैं, परंतु जमीनी बदलाव नहीं दिखते। आम आदमी का गुस्सा इसलिए फूटता है क्योंकि उसे नीतिगत निष्क्रियता साफ दिखाई देती है।

और यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि गुस्से का अर्थ यह नहीं कि किसी भी चरमपंथी विचारधारा को मंच मिल जाए। एक लोकतंत्र में ग़लत नीतियों की आलोचना की जा सकती है, परंतु लोकतंत्र विरोधी हिंसक संगठनों की प्रशंसा नहीं की जा सकती। यह विरोध की सीमा नहीं, बल्कि उसकी आत्मा को ही दूषित कर देता है।

घटना का तीसरा पहलू इससे भी चिंताजनक कि हर बार की तरह यह मुद्दा भी राजनीतिक बयानबाज़ी की भेंट चढ़ गया। जरूरी बात यह है कि सभी दल मिलकर प्रदूषण जैसे गंभीर संकट पर कदम उठाएँ। छब्त् के राज्यों के बीच समन्वय, निर्माण-धूल नियंत्रण, पराली प्रबंधन, सार्वजनिक परिवहन का विस्तार, ये सब आज ही करने की ज़रूरत है। जनता सड़क पर इसलिए उतरती है क्योंकि उसे लगता है कि उसकी आवाज़ संस्थानों तक पहुँच नहीं पा रही है। लेकिन यदि जनता में से भी कुछ लोग लोकतांत्रिक ढाँचे को ध्वस्त करने वाले तत्वों की तरफ झुक जाएँ, तो यह समाज की सामूहिक विफलता है।

इसलिए, इस पूरी घटना की घोर निंदा आवश्यक है-न केवल इसलिए कि हिंसा हुई, बल्कि इसलिए भी कि लोकतांत्रिक विरोध की पवित्रता भंग हुई। प्रदूषण के खिलाफ लड़ाई को किसी भी प्रकार की अतिवादी राजनीति से मुक्त रखना होगा। हिडमा जैसे चरमपंथियों के पोस्टर राजधानी की सड़कों पर स्वीकार्य नहीं हो सकते। यह हमारे लोकतंत्र की संवेदनशीलता पर आघात है और इससे सख़्ती से निपटना ही होगा।

बहरहाल, सरकारों को प्रदूषण पर ठोस और त्वरित कदम उठाने चाहिए ताकि ऐसे प्रदर्शन भटक कर हिंसा और अतिवाद का रूप न लें। नागरिकों का आक्रोश तभी सही दिशा में जा सकता है, जब राज्य व्यवस्था उसे सुनने और समाधान देने को तैयार हो। परंतु लोकतंत्र में कोई भी लक्ष्य हिंसा, भय और चरमपंथ के सहारे नहीं प्राप्त किया जा सकता। यह समान रूप से नागरिक, सरकार और समाज, सभी की साझा जिम्मेदारी है कि विरोध भी हो, पर सभ्य, शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप।

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