समय आ गया है कि आम जन से लेकर मीडिया भी राज्य सरकारों की जवाबदेही को बढ़ाएं। अब सिर्फ मुफ्त सुविधाओं की आड़ में काम चलाने के सिलसिले को जारी नहीं रखा जा सकता। राज्य सरकारों को भी तरक्की की राह में अपनी भूमिका के साथ न्याय करना होगा। एक नागरिक मतदाता और करदाता के रूप में हमें भी उनके कमतर प्रयासों से संतुष्ट नहीं रहना होगा...
प्रो. केवी सुब्रमण्यन। केंद्रीय बजट को मुख्यधारा के मीडिया से लेकर इंटरनेट मीडिया और विभिन्न औद्योगिक संगठनों के अलावा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा मिलती है। जबकि राज्यों के बजट को उतना महत्व नहीं मिलता। चूंकि इन दिनों राज्यों के बजट पेश हो रहे हैं, इसलिए यह सवाल उठ रहा है, क्योंकि उन पर कहीं उतनी चर्चा सुनाई नहीं पड़ रही।
इस बीच हमें यह नहीं भूलना होगा देश संघीय ढांचे के अनुसार चलता है, जहां राज्यों के पास अहम जिम्मेदारियां हैं। हैरानी की बात है कि आम जन से लेकर उद्योग संगठन राज्यों के नीतिगत क्रियाकलापों को लेकर उदासीन रहते हैं और यही बात मीडिया के एक तबके के लिए भी कही जा सकती है। राज्यों की राजनीति में नए प्रयोगों के लिहाज से उन पर नजर रखना और जरूरी हो गया है, क्योंकि ये प्रयोग आर्थिकी पर भी असर करते हैं।
किसी भी लोकतंत्र में सत्ता और जिम्मेदारी के बीच संतुलन बना रहना चाहिए। राज्यों का सिर्फ सत्ता से उभरने वाली ताकत का इस्तेमाल और अपनी जिम्मेदारियों से मुकरना लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। राज्य सिर्फ मुफ्त की रियायतें देकर नहीं चल सकते। उन्हें अपने राज्य में जीवन एवं कामकाज को सुगम बनाने के लिए बड़े बदलाव भी करने होंगे।
क्या हम सार्थक और अच्छे वेतन वाली नौकरियों के बिना प्रत्येक भारतीय के लिए बेहतर जीवन स्तर प्राप्त कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। हर भारतीय के जीवन स्तर को ऊपर उठाने का रास्ता अच्छे और ठोस रोजगारों से ही गुजरता है और मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का मजबूत होना रोजगार बढ़ाने के लिए बहुत जरूरी है, लेकिन भारत में मैन्यूफैक्चरिंग दूसरे एशियाई देशों जितना तेजी से क्यों नहीं बढ़ रहा?
किसी भी मैन्यूफैक्चरिंग कंपनी को जरूरी छह चीजें चाहिए-जमीन, मजदूर (लेबर), पूंजी, बिजली, परिवहन और उत्पादन बढ़ाने की आजादी यानी स्केल। इनमें से पांच-जमीन, मजदूर, बिजली, परिवहन और स्केल सीधे-सीधे राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। फिर भी कितनी राज्य सरकारों ने इन चीजों में सुधार को प्राथमिकता दी हैं?
बाजार में प्रतिस्पर्धा क्षमता बढ़ाने के बजाय राज्य सरकारों ने इन क्षेत्रों में कई दिक्कतें बनी रहने दी हैं। जमीन खरीदने में बड़े झंझट, कागजी कार्रवाई और भ्रष्टाचार की वजह से दाम बहुत बढ़ जाते हैं। पुराने और कालबाह्य श्रम कानूनों के कारण नई भर्तियां मुश्किल हैं। किसानों को मुफ्त बिजली देने की वजह से उद्योगों को मिलने वाली बिजली महंगी पड़ती है।
शहरों में परिवहन के मोर्चे पर कायम समस्याओं के चलते ढुलाई मुश्किल और महंगी है। अनावश्यक कागजी कार्रवाई की वजह से छोटे और मझोले उद्योगों को आगे बढ़ने में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। स्केल न बढ़ पाने के चलते उनकी औसत लागत ऊंची रहती है और वे उपलब्ध आर्थिक अवसरों का समुचित लाभ नहीं उठा पाते।
उत्पादन महंगा होने ये उद्यम अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में भी पिछड़ जाते हैं। इससे पर्याप्त मात्रा में रोजगार के अवसर सृजित नहीं हो पाते और निवेश भी आकर्षित नहीं हो पाता। मैन्यूफैक्चरिंग में भारत अगर अपेक्षित स्तर नहीं हासिल कर पा रहा तो उसके लिए राज्यों की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता, क्योंकि मैन्यूफैक्चरिंग के लिए आवश्यक छह में से पांच पहलुओं की कमान राज्यों के हाथ में है।
राज्यों के हाथ में देश का भविष्य संवारने की एक बड़ी जिम्मेदारी है। उन्हें अपने यहां उद्योग और रोजगार बढ़ाने के रास्ते में आने वाली अड़चनें दूर करनी चाहिए। निवेश लाना चाहिए और लोगों को रोजगार दिलाने चाहिए। रोजगार के मामले में तरह-तरह के आरक्षण संबंधी प्रविधानों और स्थानीय लोगों को प्राथमिकता देने वाले दबावों से निपटना चाहिए, क्योंकि ऐसे पहलू निवेशकों को प्रभावित करते हैं।
यह भी किसी से छिपा नहीं कि भारत में अधिकांश काला धन और भ्रष्टाचार रियल एस्टेट से जुड़ा है। जमीन की कीमतों में हेरफेर, जमीन के कागज सही न होना, इन सबसे अवैध कमाई होती है और जनता का भरोसा टूटता है। राज्यों के मुख्यमंत्री साफ-सुथरे जमीन रिकार्ड, डिजिटल लेनदेन और रियल एस्टेट में साफ-सुथरी व्यवस्था क्यों नहीं लागू करते? ये सवाल उठने चाहिए, क्योंकि जमीन उत्पादन का एक आधारभूत तत्व है।
आम जनता भी अपने राज्य की सरकारों से कड़े सवाल नहीं करती। याद कीजिए कि आपने आखिरी बार अपने मुख्यमंत्री से रोजगार, शहर के परिवहन ढांचे और व्यवस्था या अपने शहर में सुखपूर्वक रहने की सुविधा के बारे में कब सवाल किया था? या शहरों के बेतरतीब विस्तार के बारे में कब सवाल उठाए?
हर राज्य सरकार जब बजट पेश करे तो हमें हरसंभव तरीके से सवाल पूछने चाहिए। मसलन पिछले साल राज्य में कितनी नई नौकरियां बनीं? कारोबारी सुगमता में राज्य ने कितनी प्रगति की? इस साल बजट में कौन से सुधारों की घोषणा की गई है ताकि नौकरियों के अवसर बढ़ें? गूगल मैप्स पर देखे जाने वाले सफर के औसतन समय में कितना सुधार हुआ है?
सफर को सुगम बनाने एवं उसमें समय की कटौती के लिए बजट में क्या प्रविधान किए गए हैं। आम जन की तरह सीआइआइ, फिक्की और एसोचौम जैसे उद्योग संगठनों को भी राज्य इकाइयों के जरिये प्रदेश के बजट पर चर्चा करते हुए सवाल उठाने चाहिए। जैसे जमीन खरीद को सुगम बनाने के लिए क्या कदम उठाए गए? नए उद्यमों को प्रोत्साहन देने के लिए कौन-कौन सी प्रक्रियाएं आसान बनाई गईं? राज्य में निवेश आकर्षित करने के लिए कौन सी नीतियां अपनाने की तैयारी है?
समय आ गया है कि आम जन से लेकर मीडिया भी राज्य सरकारों की जवाबदेही को बढ़ाएं। अब सिर्फ मुफ्त सुविधाओं की आड़ में काम चलाने के सिलसिले को जारी नहीं रखा जा सकता। राज्य सरकारों को भी तरक्की की राह में अपनी भूमिका के साथ न्याय करना होगा। एक नागरिक, मतदाता और करदाता के रूप में हमें भी उनके कमतर प्रयासों से संतुष्ट नहीं रहना होगा। राज्य सरकारें नाकाम रहेंगी तो अंततरू नुकसान हमारा ही होगा। भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का काम राज्यों की सार्थक भूमिका के बिना संभव नहीं होगा।