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संघ समाज के साथ है मगर राजनीति से दूर है, मोहन भागवत के तीन दिवसीय संबोधन ने दिये कई संदेश

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भागवत का संदेश साफ है- राजनीति से दूरी रखते हुए वैचारिक मार्गदर्शन, समाज के वंचित वर्ग के उत्थान के लिए प्रतिबद्धता, तकनीक और शिक्षा के नए युग में भारतीय दृष्टि का समावेश और विश्व स्तर पर आत्मनिर्भर लेकिन सहयोगी भारत की परिकल्पना...

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना को एक शताब्दी पूरी होने जा रही है। यह अवसर केवल आत्ममंथन का नहीं, बल्कि भविष्य की दिशा तय करने का भी है। नई दिल्ली के विज्ञान भवन में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने लगातार तीन दिनों तक इसी संदर्भ में अपने विचार रखे। उनके वक्तव्य में अतीत का आत्मविश्वास भी था और भविष्य की चिंता भी। तीन दिवसीय कार्यक्रम में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने न केवल संगठन के अतीत और उपलब्धियों की समीक्षा की, बल्कि भविष्य की रूपरेखा और समसामयिक प्रश्नों के उत्तर भी दिए। भागवत का वक्तव्य इस बात पर केंद्रित था कि संघ मात्र एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन नहीं है, बल्कि भारतीय समाज के विकास, संतुलन और दिशा निर्धारण का सहभागी भी है।

इसके अलावा, अक्सर यह प्रश्न उठता है कि बीजेपी की राजनीति और आरएसएस का मार्गदर्शन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लेकिन भागवत ने स्पष्ट किया कि “हम विशेषज्ञ अपनी शाखा में हैं, वे सरकार चलाने में विशेषज्ञ हैं। हम सुझाव दे सकते हैं, निर्णय उनका है।” देखा जाये तो यह कथन राजनीतिक हस्तक्षेप की आशंकाओं को खारिज करता है और संघ की भूमिका को वैचारिक मार्गदर्शक तक सीमित बताता है। “अगर हम तय करते, तो बीजेपी अध्यक्ष के चुनाव में इतनी देर क्यों होती?” कृयह टिप्पणी संघ और सत्ता के बीच के संबंधों पर एक रोचक संदेश देती है।

इसके अलावा, संघ प्रमुख ने दो टूक कहा कि जब तक समाज के वंचित वर्ग स्वयं महसूस न करें कि उन्हें विशेष अवसर की आवश्यकता नहीं है, तब तक संघ आरक्षण का समर्थन करता रहेगा। उन्होंने जाति-आधारित विभाजन को अप्रासंगिक बताते हुए कहा कि “ऊपर वाले हाथ बढ़ाएं और नीचे वाले आगे बढ़ने की कोशिश करें।” यह दृष्टिकोण भारतीय समाज के भीतर असमानताओं को पाटने के संघीय दृष्टिकोण को सामने रखता है।

साथ ही, भागवत का “हर परिवार को तीन बच्चे” वाला बयान जनसंख्या नियंत्रण की बहस में नया मोड़ लाता है। उनका कहना था कि 2.1 की औसत जन्मदर को व्यवहारिक रूप में तीन बच्चों के रूप में देखा जाना चाहिए। हालांकि साथ ही उन्होंने संसाधनों के संतुलन और प्रबंधन की आवश्यकता पर भी जोर दिया।

इसके अलावा, धर्म को व्यक्तिगत विकल्प बताते हुए उन्होंने कहा कि “हिंदू और मुस्लिम को एक करने की बात ही क्यों, वे पहले से एक हैंकृ भारतीय हैं।” भागवत ने यह भी स्पष्ट किया कि इस्लाम भारत में रहेगा और कोई हिंदू ऐसा सोच ही नहीं सकता कि इसे समाप्त होना चाहिए। लेकिन उन्होंने आक्रांताओं के नाम पर जगहों और सड़कों के नामकरण पर आपत्ति जताई और प्रेरणादायी व्यक्तित्वोंकृ जैसे डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर नामकरण का सुझाव दिया।

साथ ही अवैध प्रवास और जबरन धर्मांतरण को उन्होंने जनसांख्यिकीय असंतुलन की जड़ बताया। उनका तर्क था कि नागरिकोंकृ हिंदू या मुस्लिम को रोजगार और अवसर मिलने चाहिए, लेकिन अवैध प्रवासियों को नहीं। इस दृष्टिकोण में राष्ट्रहित और मानवता दोनों का संतुलन झलकता है।

इसके अलावा, भागवत ने कृत्रिम बुद्धिमत्ता (।प्) और आधुनिक तकनीक के अवसरों और खतरों पर चर्चा करते हुए कहा कि “तकनीक का मालिक इंसान होना चाहिए, न कि तकनीक इंसान की नियति तय करे।” शिक्षा केवल सूचनाओं का ढेर नहीं बल्कि मनुष्य निर्माण का साधन होनी चाहिए। नई शिक्षा नीति में इन बातों के समावेश की आवश्यकता पर उन्होंने बल दिया।

अमेरिकी दबाव की पृष्ठभूमि में उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार जरूरी है, लेकिन मित्रता दबाव में नहीं पनप सकती। आत्मनिर्भरता और पारस्परिक निर्भरता दोनों का संतुलन बनाना भारत की विदेश नीति का आधार होना चाहिए।

देखा जाये तो मोहन भागवत का यह वक्तव्य संघ की 100 वर्षों की यात्रा से आगे के 100 वर्षों की झलक प्रस्तुत करता है। यह यात्रा केवल संगठन की नहीं, बल्कि भारतीय समाज की भी हैकृ जहाँ परंपरा और आधुनिकता, आध्यात्म और विज्ञान, सामाजिक न्याय और राष्ट्रीय हितकृसबको जोड़ने का प्रयास है। भागवत का संदेश साफ है- राजनीति से दूरी रखते हुए वैचारिक मार्गदर्शन, समाज के वंचित वर्ग के उत्थान के लिए प्रतिबद्धता, तकनीक और शिक्षा के नए युग में भारतीय दृष्टि का समावेश और विश्व स्तर पर आत्मनिर्भर लेकिन सहयोगी भारत की परिकल्पना।

बहरहाल, संघ की शताब्दी केवल एक संगठन की यात्रा नहीं है, बल्कि भारतीय समाज के विकास और बदलाव की गवाही भी है। मोहन भागवत का संदेश यही था कि आने वाले समय में संघ राजनीति से परे, समाज और राष्ट्र निर्माण की भूमिका निभाता रहेगा। प्रश्न यह है कि क्या संघ आने वाली पीढ़ियों को उस समन्वय और आधुनिक दृष्टि से जोड़ पाएगा, जिसकी झलक भागवत ने दिखाई है? यदि हाँ, तो संघ की दूसरी शताब्दी न केवल भारत, बल्कि पूरे विश्व में उसकी प्रासंगिकता को नई ऊँचाइयों तक पहुँचा सकती है।

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