Ads Area

Aaradhya beauty parlour Publish Your Ad Here Shambhavi Mobile

पिता ने पहला चुनाव लड़ने से वंचित करवाया

sv news


बिहार की राजनीति में रामविलास पासवान को कोई मौसम वैज्ञानिक की संज्ञा देता था तो कोई उन्हें साधने पैदल ही 12 जनपथ के आवास पर पहुंच जाया करता था। युवा नेता के रूप में जब चुनावी समर में उतरते तो अपना नाम गिनीज बुक में दर्ज करवा लेता...

ये 1977 की बत है लोकसभा का कार्यकाल नवंबर में ख़त्म होने वाला था। लेकिन इंदिरा गांधी ने अचानक 18 जनवरी को चुनाव की घोषणा करके देशवासियों और विपक्ष दोनों को अचंभे में डाल दिया था। आपातकाल हटने के बाद भारत में छठे लोकसभा चुनाव की तैयारियां जोरों पर थी। जयप्रकाश नारायण द्वारा अपने हिस्से से तीन लोगों को लोकसभा का टिकट दिया। जिनमें पहले थे लालू प्रसाद यादव, दूसरे महामाया प्रसाद सिन्हा और तीसरे रामविलास पासवान। हालांकि बिहार की सियासत के एक और चर्चित चेहरे नीतीश कुमार के बारे में भी कहा जाता है कि उन्हें भी जयप्रकाश नारायण की तरफ से टिकट मिलना था। लेकिव वह जेल में थे जिस वजह से उन्हें इस बात का संदेश नहीं मिल सका और टिकट से वंचित रह गए। कहा तो ये भी जाता है कि नीतीश कुमार इस सब का जिम्मेदार रामविलास पासवान को मानते थे। 

बिहार की राजनीति में रामविलास पासवान को कोई मौसम वैज्ञानिक की संज्ञा देता था तो कोई उन्हें साधने पैदल ही 12 जनपथ के आवास पर पहुंच जाया करता था।  युवा नेता के रूप में जब चुनावी समर में उतरते तो अपना नाम गिनीज बुक में दर्ज करवा लेता। पिछले कई दशक में दिल्ली की तख्त पर चाहे कोई भी पार्टी किसी भी गठबंधन की सरकार रही हो हरेक सरकार में उसकी भागीदारी अहम रही। धरती गूंजे आसमान-रामविलास पासवान हाजीपुर व वैशाली के किसी क्षेत्र में रामविलास पासवान कदम रखते हैं तो यह नारा जरूर सुनाई दे सकता है। 1989 में हाजीपुर के किसी कार्यकर्ता के मुंह से निकला नारा, पासवान के साथ ही पूरे बिहार में काफी पॉपुलर रहा। लेकिन छठ पर्व का अवसर था और बिहार की राजनीति के चाणक्य 1 अणे मार्ग से निकलकर पटना स्थित चिराग पासवान के घर पहुंच जाते हैं। नीतीश कुमार का कोई भी एक्ट यूं ही नहीं होता। चाहे वो किसी मुद्दे पर महज बयान ही क्यों न हो। या फिर, किसी से मेल मुलाकात की बात हो। और, मेल मुलाकात भी ऐसी जिसमें वो खुद चलकर किसी के घर पहुंचते हों। लालू यादव के मामले में तो ये देखा जाता रहा है, लेकिन इस बार ये वाकया चिराग पासवान के साथ हुआ हैनीतीश कुमार के दरवाजे पर पहुंचते ही चिराग पासवान के पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं। 

मीरा कुमार और मायावती से चुनावी भिड़ंत

बिजनौर लोकसभा सीट के लिए 1985 का साल बेहद ही खास है। जिस चुनाव में दलित राजनीति के उफान को पूरे उत्तर प्रदेश और बिहार ने महसूस किया। इस लोकसभा उप चुनाव का परिणाम चाहे जो रहा हो लेकिन इसके उम्मीदवारों ने अपनी जीत के लिए जी-तोड़ कोशिश की थी। 1985 के उप चुनाव के लिए एक महिला उम्मीदवार प्रचार के लिए सायकिल के सहारे थीं। अपने सायकिल के जरिये वो बिजनौर की गलियां छानते हुए लोगों से मिलते हुए अपनी जीत के लिए सत्ता की लड़ाई लड़ रही थीं। ये कोई और नहीं बल्कि बसपा सुप्रीमों मायावती थीं। जो अपना पहला लोकसभा उपचुनाव लड़ रही थीं। मायावती के मुकाबले एक और दलित चेहरा मैदान में था जो ब्रिटेन, स्पेन और मारीशस के भारतीय दूतावासों में अपनी सेवा देने के बाद उस चुनावी मैदान में उतरी थीं और वो नाम था बाबू जगजीवन राम की पुत्री मीरा कुमार का। लेकिन 1985 के इस चुनाव में एक और दलित नेता की एंट्री होती है। रामविलास पासवान ने भी बिजनौर का उपचुनाव लड़ा। बिजनौर का ये चुनाव भारतीय राजनीति को बदल देने वाला था। बड़े-बड़े दिग्गज के बीच घमासान हुआ। कांग्रेस, लोकदल और मायावती के बीच त्रिकोणीय मुकाबले में मीरा कुमार ने अपने पहले ही चुनाव में दिग्गज दलित नेता रामविलास पासवान और बीएसपी प्रमुख मायावती को हरा दिया।  इस चुनाव में रामविलास पासवान दूसरे और मायावती तीसरे नंबर पर रहीं। 

जब मुस्लिम सीएम को लेकर अड़ गए रामविलास

तारीख 27 फरवरी 2005 बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आते हैं। सत्ताधारी राष्ट्रीय जनता दल आरजेडी को बड़ा झटका लगता है। 40 सीटों की गिरावट के बावजूद लेकिन वो सबसे बड़ी पार्टी थी लेकिन अकेले दम पर सत्ता से कोसों दूर भी थी। सहयोगी दल कांग्रेस की 18 सीटों को मिलाकर 93 हो रही थी। 243 सीटों वाली विधानसभा में सरकार बनाने के लिए ढाई दर्जन सीटें और चाहिए थी। ऐसे में यूपीए का ही एक और दल था लोजपा जिसने अकेले चुनाव लड़कर 29 सीटें जीत ली थी। भले ही चुनाव से पहले मनमुटाव रहा हो लेकिन लालू यादव और कांग्रेस दोनों को यह उम्मीद रही होगी कि सेटलमेंट हो जाएगा और आसानी से वह अपनी सरकार बना ले जाएंगे। मगर पार्टी के नेता ने एक अजीबोगरीब शर्त रखी। आमतौर पर ऐसी स्थिति में समर्थन देने वाले दल मुख्यमंत्री पद की डिमांड करते हैं मगर यहां ऐसा बिल्कुल नहीं था। शर्त यह थी कि आरजेडी किसी मुसलमान को मुख्यमंत्री बनाए। मगर लालू इस शर्त को लेकर सहज नहीं थे। एनडीए की तरफ भी समानांतर बातचीत चल रही थी। मगर वहां पर नीतीश कुमार के सामने भी यह शर्त रखी गई तो वह भी सहज नहीं हुए। आखिर में दोनों गठबंधनों ने इस शर्त पर अपने हाथ खड़े कर दिए। किसी की भी सरकार नहीं बनी बिहार में और राष्ट्रपति शासन लगा। 

2005 के चुनाव में किंग मेकर बनने की चाह में पूरी सियासत बिखर गई

2005 से 2009 रामविलास के लिए बिहार की राजनीति के हिसाब से मुश्किल दौर था। 2005 में वे बिहार विधानसभा चुनाव में सरकार बनाने या लालू-नीतीश की लड़ाई के बीच सत्ता की कुंजी लेकर उतरने का दावा करते रहे। फिर अल्पसंख्यक मुख्यमंत्री बनाने के बदले समर्थन की बात करते रामविलास की जिद राज्यपाल बूटा सिंह ने दोबारा चुनाव की स्थिति बनाकर उनकी राजनीति को और बड़ा झटका दिया। नवंबर में हुए चुनाव में लालू प्रसाद का 15 साल का राज गया ही, रामविलास की पूरी सियासत बिखर गई।  बिहार में सरकार बनाने की चाबी अपने पास होने का उनका दावा धरा रह गया। वे चुपचाप केंद्र की राजनीति में लौट आए।

कहा जाने लगा राजनीति का मौसम वैज्ञानिक

मौसम वैज्ञानिक यानी जो पहले ही भांप ले की कौन जीतने वाला है और फिर वो उस दल या गठबंधन के साथ हो लेते हैं। पासवान परिवार की निष्ठा मौसम के हिसाब से बदलती रहती है। इसलिए उन्हें सियासत का मौसम वैज्ञानिक कहा जाता है। अतीत के पन्ने पलटेंगे तो रामविलास पासवान देवगौड़ा सरकार में भी मंत्री थे। 1999 में वायपेयी सरकार में भी मंत्री बने। 2004 में यूपीए की सरकार बनी तो पासवान वहां भी मंत्री बने। 2013 तक यूपीए में रहे लेकिन 2014 के चुनाव में पाला बदल लिया। 

चिराग पासवान को एनडीए की 29 सीटें कैसे मिलीं

एनडीए में सीट शेयरिंग का फ़ॉर्मूला घोषित होने से पहले लोजपा (आर) प्रमुख चिराग पासवान तल्ख़ तेवर अपनाए हुए थे। चुनाव की घोषणा से पहले भी वो नीतीश सरकार के कामकाज और राज्य की बिगड़ती क़ानून व्यवस्था का सवाल उठाते रहे।

सीट शेयरिंग के वक़्त उनसे बातचीत करने का ज़िम्मा केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय को सौंपा गया था। 2024 के लोकसभा चुनाव में चिराग ने अपने हिस्से में आई पाँचों सीट जीती थी और वो इस हिसाब से 30 सीट चाहते थे। यानी प्रति लोकसभा छह सीट।

सीट शेयरिंग का फ़ॉर्मूला देखें, तो चिराग अपनी मांग मनवाने में कामयाब रहे। उन्हें 29 सीटें मिली हैं। राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि पूरे एनडीए में चिराग जैसे क़द का कोई युवा नेता नहीं है। ऐसे में बीजेपी एक ऐसे नेता को अपने साथ रखना चाहती है, जो 2025 और 2030 के बाद भी उसके साथ रहे। यही वजह है कि बीजेपी चिराग पर निवेश कर रही है और उस पर दांव लगा रही है। बता दें कि बीते विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने अकेले 135 सीट पर चुनाव लड़ा था और सिर्फ़ एक सीट पर जीत दर्ज की थी। 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

Top Post Ad