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शक्ति संतुलन की राजनीति में ट्रंप और शी जिनपिंग ने बड़ी सावधानी से अपनी चालें चलीं

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नई दिल्ली। दक्षिण कोरिया के बंदरगाह शहर बसान में हुए एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग सम्मेलन के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हुई मुलाकात को वैश्विक कूटनीतिक मंच पर एक “बहुप्रतीक्षित क्षण” कहा गया। दोनों नेताओं की यह पहली आमने-सामने वार्ता 2019 के बाद हुई और उस पर विश्व की निगाहें इसलिए भी टिकी थीं क्योंकि अमेरिकादृचीन व्यापार युद्ध ने पिछले कुछ वर्षों में न केवल वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को झकझोरा है, बल्कि आर्थिक विश्वास और राजनीतिक स्थिरता दोनों को हिला दिया है।

ट्रम्प ने बैठक के बाद घोषणा की कि उन्होंने चीन पर लगाए गए टैरिफ को 57ः से घटाकर 47ः करने पर सहमति जताई है। इसके बदले में चीन ने तीन महत्वपूर्ण वादे किएकृ पहला, अमेरिकी सोयाबीन की खरीद तुरंत शुरू करना; दूसरा, दुर्लभ खनिज (तंतम मंतजीे) के निर्यात को जारी रखना और तीसरा, फेंटेनिल जैसे खतरनाक नशीले पदार्थों की तस्करी पर अंकुश लगाना। सतही तौर पर यह एक संतुलित सौदा प्रतीत होता है कि दोनों देशों ने कुछ दिया और कुछ लिया। परंतु प्रश्न यह है कि क्या शी जिनपिंग ने वास्तव में कोई रणनीतिक उपलब्धि हासिल की, या यह केवल प्रतीकात्मक राहत है जिसे घरेलू राजनीतिक संतुलन साधने के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है?

देखा जाये तो टैरिफ में 10 प्रतिशत अंकों की कमी का निर्णय, अपने आप में, आर्थिक दृष्टि से सीमित प्रभाव वाला कदम है। यह अमेरिकी उपभोक्ताओं और आयातकों के लिए अस्थायी राहत तो लाएगा, पर चीन के लिए यह ‘महान कूटनीतिक जीत’ नहीं कही जा सकती। चीन पहले से ही 57ः के उच्च टैरिफ के कारण अमेरिकी बाजार में प्रतिस्पर्धा खो चुका था। ऐसे में 47ः पर लौटना किसी बड़ी संरचनात्मक सुधार की गारंटी नहीं देता। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि यह अमेरिका की ओर से नियंत्रित नरमी का संकेत है, ताकि दोनों देशों के बीच संवाद की संभावना बनी रहे।

शी जिनपिंग ने अपने हिस्से की “रियायतें” ऐसे क्षेत्रों में दीं जो सीधे-सीधे चीन के हितों को बहुत प्रभावित नहीं करते। उदाहरण के लिए, सोयाबीन की खरीदकृ यह चीन की खाद्य आवश्यकताओं का हिस्सा है, न कि किसी नयी उदारता का प्रतीक। इसी तरह, तंतम मंतजीे का निर्यात जारी रखना भी चीन की आर्थिक आत्मनिर्भरता के खिलाफ नहीं जाता; बल्कि यह विश्व बाजार में उसकी पकड़ बनाए रखने का ही तरीका है।

हम आपको यह भी बता दें कि बसान वार्ता से ठीक पहले ट्रम्प ने अमेरिका के क्मचंतजउमदज व िॅंत को परमाणु हथियार परीक्षण शुरू करने का निर्देश दिया था। यह घटना केवल संयोग नहीं थी, बल्कि एक स्पष्ट सामरिक संकेत थी कि अमेरिका यह जताना चाहता था कि उसकी “डील” कमजोर स्थिति से नहीं, बल्कि शक्ति-प्रदर्शन के साथ आ रही है। इस संदर्भ में यदि शी जिनपिंग ने 10 प्रतिशत टैरिफ रियायत के बदले में बातचीत को पटरी पर लौटाया, तो यह उनकी कूटनीतिक विवेकशीलता तो दर्शाता है, पर यह कोई रणनीतिक विजय नहीं है।

चीन के लिए बड़ी चुनौती यह है कि वह आर्थिक रूप से अमेरिका पर निर्भरता कम करना चाहता है, पर विश्व आपूर्ति श्रृंखला में उसकी भूमिका अभी भी नाजुक है। तंतम मंतजीे और तकनीकी उद्योगों के नियंत्रण के बावजूद, चीन को यह एहसास है कि अमेरिका की तकनीकी रोकथाम (।प्, चिप्स, हाई-टेक एक्सपोर्ट बैन) ने उसकी दीर्घकालिक महत्वाकांक्षाओं को सीमित किया है। इसलिए बसान की बैठक को चीन द्वारा “रणनीतिक स्थिति-संतुलन” के प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि किसी निर्णायक जीत के रूप में।

उधर, डोनाल्ड ट्रम्प ने बैठक के बाद इसे “हतमंज ेनबबमेे” कहा और अप्रैल में चीन की यात्रा की घोषणा भी की। परंतु ट्रम्प की सफलता का वास्तविक अर्थ घरेलू राजनीति में है। वह अमेरिकी मतदाताओं को दिखाना चाहते हैं कि उन्होंने चीन को “कठोरता से” घेरा, पर अंततः अपने उद्योगों के लिए व्यावहारिक सौदेबाज़ी भी की। अमेरिकी कृषि राज्यों के लिए सोयाबीन व्यापार पुनः आरंभ होना ट्रम्प के लिए चुनावी पूंजी जैसा है।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि बसान वार्ता से एक दिन पहले ही ट्रम्प प्रशासन ने रूस के परमाणु परीक्षणों के जवाब में अमेरिका द्वारा नए परमाणु हथियार परीक्षण की घोषणा की थी। इस प्रकार, अमेरिका ने एक ही मंच से दो संदेश दियेकृ रूस को सैन्य चुनौती और चीन को व्यापारिक नियंत्रित रियायत। यह वही “द्विस्तरीय शक्ति प्रदर्शन” है जिसकी नीति ट्रम्प के पहले कार्यकाल में भी झलकती थी।

देखा जाये तो यह वार्ता केवल अमेरिका और चीन के बीच नहीं, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के संतुलन की दिशा तय करने वाली घटना थी। ।च्म्ब् का मंच, जो कभी मुक्त व्यापार और सहयोग का प्रतीक था, अब शक्ति-संतुलन और नियंत्रण का अखाड़ा बन गया है। अमेरिका की संरक्षणवादी नीतियाँ और चीन की प्रतिकारी व्यापार रणनीति इस मंच की मूल भावना को चुनौती दे रही हैं।

दूसरी ओर, विश्व निवेशक इस समझौते को लेकर अभी भी आशंकित हैं। एशियाई बाजारों में उतार-चढ़ाव और अमेरिकी सोयाबीन वायदा की कमजोरी बताती है कि बाज़ार को स्थायित्व का भरोसा नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था अब “स्थायी सहमति” की नहीं, बल्कि “तत्काल अवसरों” की राजनीति में फँस चुकी है।

बहरहाल, शी जिनपिंग के लिए बसान की बैठक निश्चित रूप से एक अवसर थी। उन्होंने यह दिखाया कि चीन संवाद और सहयोग की राह से बाहर नहीं है। परंतु वस्तुतः यह समझौता चीन के लिए रणनीतिक विस्तार नहीं बल्कि रणनीतिक नियंत्रण का प्रतीक है। उन्होंने टकराव को कुछ समय के लिए रोका, पर कोई नई भू-राजनीतिक या आर्थिक जीत हासिल नहीं की। मगर अमेरिका ने वही किया जो उसके हित में था। यानि कुछ नरमी दिखाकर वैश्विक मंच पर “संतुलनकारी शक्ति” की भूमिका निभाई। और चीन ने वही किया जो विवेक में था यानि कठोरता की बजाय व्यवहारिकता का चयन किया। बसान से निकला असली संदेश यही है कि इस युग में न तो कोई स्थायी मित्र है, न स्थायी प्रतिद्वंद्वीकृ केवल हित सर्वाेपरि हैं और वही आज की विश्व व्यवस्था का वास्तविक आधार बन चुके हैं।

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