ईडी की जांच के मुताबिक, अनिल अंबानी समूह की कई कंपनियोंकृ रिलायंस कम्युनिकेशंस (आर-कॉम), रिलायंस होम फाइनेंस, रिलायंस कमर्शियल फाइनेंस, रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर और रिलायंस पावर ने पिछले एक दशक में सरकारी और बैंकिंग संस्थानों से हज़ारों करोड़ रुपये जुटाए...
कभी भारत की कॉर्पाेरेट दुनिया में “सफलता का प्रतीक” कहे जाने वाले अनिल अंबानी आज उस दौर में खड़े हैं जहाँ उनका नाम किसी बिज़नेस मॉडल से नहीं, बल्कि जांच एजेंसियों की रिपोर्ट से जुड़ा दिखाई देता है। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की ओर से अनिल अंबानी की 7,500 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्तियों की कुर्की की गयी है जिसमें मुंबई के पाली हिल स्थित उनका घर और रिलायंस समूह की कई प्रतिष्ठित परिसंपत्तियाँ शामिल हैं। यह सिर्फ एक कारोबारी पर कार्रवाई नहीं है बल्कि भारत की आर्थिक जवाबदेही की दिशा में एक निर्णायक संदेश है। देखा जाये तो यह मामला सिर्फ एक उद्योगपति के पतन की कहानी नहीं, बल्कि उस तंत्र की परीक्षा है जो यह दिखा रहा है कि धन और प्रभाव अब कानून से ऊपर नहीं हैं।
ईडी की जांच के मुताबिक, अनिल अंबानी समूह की कई कंपनियोंकृ रिलायंस कम्युनिकेशंस (आर-कॉम), रिलायंस होम फाइनेंस, रिलायंस कमर्शियल फाइनेंस, रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर और रिलायंस पावर ने पिछले एक दशक में सरकारी और बैंकिंग संस्थानों से हज़ारों करोड़ रुपये जुटाए। आरोप है कि इनमें से बड़ी रकम समूह की अन्य कंपनियों या संबद्ध इकाइयों में स्थानांतरित की गई और कुछ धनराशि विदेशों में फर्जी कंपनियों के ज़रिए भेजी गई।
ईडी ने यह भी दावा किया है कि “एक कंपनी से लिए गए ऋण का उपयोग दूसरी कंपनी के ऋण चुकाने या म्यूचुअल फंड में निवेश करने में किया गया”, जो सीधे तौर पर ऋण की शर्तों का उल्लंघन था। यह तथाकथित “एवरग्रीनिंग मॉडल”, जहाँ पुराने ऋण को नए ऋण से ढका जाता है, भारत की कॉर्पाेरेट गवर्नेंस की सबसे पुरानी बीमारी रही है।
हम आपको याद दिला दें कि अनिल अंबानी का उदय भारतीय उदारीकरण के स्वर्णकाल का प्रतीक था। उनके प्रोजेक्ट्सकृ टेलीकॉम से लेकर बिजली और इंफ्रास्ट्रक्चर तक, 90 के दशक की नई आर्थिक नीतियों के पोस्टर चाइल्ड थे। परंतु वही पूंजीवाद, जो प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करने के लिए था, धीरे-धीरे “कॉर्पाेरेट कार्टेल” में बदल गया।
रिलायंस कम्युनिकेशंस की गिरावट से शुरू हुआ वित्तीय संकट अब कानूनी संकट में तब्दील हो चुका है। पहले यह मामला “बाज़ार की असफलता” कहा जाता था, अब इसे “वित्तीय अनियमितता और मनी लॉन्ड्रिंग” के रूप में देखा जा रहा है। जब किसी समय बैंकों ने 31,000 करोड़ रुपये से अधिक की राशि इस समूह को ऋण स्वरूप दी थी, तब किसी ने यह नहीं सोचा था कि 19,000 करोड़ रुपये से अधिक राशि एनपीए बन जाएगी और उसके बाद जांच एजेंसियों को धनशोधन का पैटर्न मिलेगा।
देखा जाये तो ईडी की ताज़ा कार्रवाई को महज़ एक उद्योगपति के खिलाफ कानूनी कदम के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह भारत की आर्थिक पारदर्शिता के उस नए युग की घोषणा है जिसमें “ब्रांड वैल्यू” से ज़्यादा “सत्यापन मूल्य” मायने रखता है। हाल के वर्षों में, प्रवर्तन एजेंसियों पर राजनीतिक पक्षधरता के आरोप लगते रहे हैं। परंतु जब ईडी जैसे संस्थान एक ऐसे उद्योगपति पर कार्रवाई करते हैं, जो कभी भारत की कॉर्पाेरेट प्रतिष्ठा का चेहरा था, तो यह संकेत देता है कि आर्थिक अपराध की रेखा अब राजनीतिक समीकरणों से परे खींची जा रही है। अनिल अंबानी का मामला यह दिखाता है कि चाहे व्यक्ति कितना भी प्रभावशाली क्यों न हो, अगर उसने बैंकिंग व्यवस्था का दुरुपयोग किया, तो जवाबदेही तय होगी।
देखा जाये तो यह कार्रवाई उस दौर में हुई है जब भारत की आर्थिक व्यवस्था में जनता का भरोसा दोतरफा दबाव में है। एक ओर कॉर्पाेरेट घोटालों की गूंज, दूसरी ओर सरकारी एजेंसियों की विश्वसनीयता पर प्रश्न। ऐसे में जब ईडी सैंकड़ों पन्नों की जांच रिपोर्ट के आधार पर ठोस संपत्ति कुर्क करती है, तो यह केवल कानूनी प्रक्रिया नहीं बल्कि जनता के विश्वास की पुनर्स्थापना है। हालांकि यह भी सच है कि कई मामलों में ईडी की जांच वर्षों तक अदालतों में उलझ जाती है और ठोस दंडात्मक परिणाम सामने नहीं आते। इसलिए यह आवश्यक है कि यह प्रक्रिया पारदर्शी, तेज़ और न्यायोचित रहे क्योंकि यदि न्याय देर से मिलेगा, तो संदेश खो जाएगा।
अनिल अंबानी केस से निकले व्यापक सबक को देखें तो भारत के निजी क्षेत्र में ऋण प्राप्ति की प्रक्रिया और उससे जुड़ी जवाबदेही पर यह मामला बड़ा सवाल उठाता है। बैंकिंग सेक्टर में केवल “क्रेडिट स्कोर” नहीं, बल्कि “कंट्रोल स्कोर” की भी निगरानी आवश्यक है, यानी, पैसा कहाँ और कैसे जा रहा है, इसका ट्रैक पारदर्शी होना चाहिए। देखा जाये तो लंबे समय तक भारत में उद्योग और सत्ता के रिश्ते इतने गहरे रहे कि जवाबदेही धुंधली पड़ गई है। हालांकि यह मामला यह संदेश देता है कि सत्ता से समीपता अब सुरक्षा कवच नहीं है।
देखा जाये तो अनिल अंबानी की कहानी एक व्यक्ति की असफलता भर नहीं है, बल्कि उस प्रणाली का आईना है जिसने दशकों तक “कर्ज के सहारे साम्राज्य” खड़ा करने की अनुमति दी। अब जब वही व्यवस्था कठोर जांच के घेरे में है, तो यह न केवल एक उद्योगपति का पतन है, बल्कि पूरे कॉर्पाेरेट संस्कृति के आत्ममंथन का क्षण भी है। यह कार्रवाई आने वाले समय के लिए संकेत देती है कि भारत का आर्थिक नियमन अब “कर्ज वितरण” की जगह “कर्ज अनुशासन” पर आधारित होगा। और जो भी व्यक्ति या संस्था सार्वजनिक धन का दुरुपयोग करेगी, वह कानून की पकड़ से नहीं बच पाएगी, भले ही उसका नाम अंबानी ही क्यों न हो।
अनिल अंबानी के खिलाफ ईडी की कार्रवाई एक ऐतिहासिक मोड़ है क्योंकि यह केवल एक नाम पर नहीं, बल्कि उस सोच पर प्रहार है जो मानती थी कि प्रभावशाली लोग जवाबदेही से मुक्त हैं। भारत के आर्थिक इतिहास में यह दिन इसलिए याद किया जाएगा क्योंकि इसने स्पष्ट कर दिया है कि धन का आकार चाहे जितना भी बड़ा हो, कानून की रेखा उसके ऊपर नहीं खींची जा सकती। यह संदेश केवल उद्योगपतियों के लिए नहीं, बल्कि पूरे शासनतंत्र के लिए है कि कानून की दिशा वही है जहाँ जवाबदेही जीवित है।
बहरहाल, कभी “मैराथन मैन” कहे जाने वाले अनिल अंबानी, जो 40 की उम्र के बाद अपने अनुशासन और फिटनेस से प्रेरणा का प्रतीक बने थे, आज आर्थिक और कानूनी लड़ाई की दौड़ में पिछड़ते नज़र आ रहे हैं। वह केवल कारोबारी जगत की शख्सियत नहीं थे, बल्कि सत्ता के गलियारों में भी उनका प्रभाव माना जाता था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खुले समर्थक माने जाने वाले अनिल अंबानी ने 2014 के बाद के दौर में खुद को “नए भारत के औद्योगिक चेहरे” के रूप में प्रस्तुत किया था। मगर आज तस्वीर उलट चुकी हैकृ सत्ता से नज़दीकी भी उन्हें न तो वित्तीय पतन से बचा पाई, न ही ईडी की सख्ती से। यह समय हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र में शक्ति का स्थायित्व सत्ता से नहीं, बल्कि सत्य और पारदर्शिता से आता है। दौड़ चाहे फिटनेस की हो या वित्त की, अगर नियम टूटते हैं, तो मंज़िल तक पहुँचने वाला भी रास्ता खो देता है।
