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प्रतीकों के सियासी टोटके फिर भी नाकाम!

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राजनीति में प्रतीकों के जरिए लोकसंदेश की स्थापित परंपरा है। शिखर नेता और शीर्ष राजनीतिक परिवार लोगों से रस्मी घुलना-मिलना, उनकी सदाशयता और सादगी के प्रतीक के रूप में स्थापित हो गया है। किसी हस्ती का सामान्य दिखना और आम लोगों जैसे काम करना वोटरों के समर्थन की गारंटी माना जाता रहा है...

चुनाव नतीजों के बाद बिहार के सियासी गलियारों में एक लतीफा चल पड़ा है। मुकेश सहनी ने तालाब में कूद कर एक मछली पकड़ी, उसे बड़ी हसरत के साथ राहुल गांधी को थमाया, लेकिन राहुल के हाथ से वह मछली भी फिसल गई। जो सहनी महागठबंधन के उप मुख्यमंत्री उम्मीदवार थे, उसके हाथ सिफर ही लगा है। बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान मुकेश के साथ राहुल गांधी और कन्हैया कुमार तालाब में कूद गए थे। ‘सन ऑफ मल्लाह’ के साथ दोनों का तालाब में कूदना दरअसल लोक से जुड़ने का सियासी टोटका था, लेकिन चुनाव नतीजों से साफ है कि ये सियासी टोटके एक बार फिर नाकाम रहे। 

राजनीति में प्रतीकों के जरिए लोकसंदेश की स्थापित परंपरा है। शिखर नेता और शीर्ष राजनीतिक परिवार लोगों से रस्मी घुलना-मिलना, उनकी सदाशयता और सादगी के प्रतीक के रूप में स्थापित हो गया है। किसी हस्ती का सामान्य दिखना और आम लोगों जैसे काम करना वोटरों के समर्थन की गारंटी माना जाता रहा है। यही वजह है कि कांग्रेस के प्रथम परिवार के राहुल जब भी ऐसा करते हैं, उनसे उम्मीदें बढ़ जाती हैं। यह बात और है कि राजनीति में कामयाबी पाने  का यह टोटका कांग्रेस के लिए मुफीद नहीं रहा है।

बिहार में बीते तीन महीनों में राहुल गांधी ने आम आदमी बनने की दो कोशिशें कीं । ‘वोटर अधिकार यात्रा’ के दौरान मोजे पहने ही मखाने के पानीभरे खेत में वे उतरे और बाद में चुनाव प्रचार के दौरान मुकेश सहनी के साथ मछली पकड़ने के लिए गंदले तालाब में उतर गए। राहुल जब ऐसा करते हैं, बौद्धिकों  का एक तबका इसे अभूतपूर्व कदम साबित करने लगता है। बहुत तो इसमें राहुल के दिल की नरमी भी खोज लाते हैं। सोनीपत में जब राहुल ने धान-रोपाई की और ट्रैक्टर चलाया, तब भी ऐसी ही उम्मीदों के पंख लग गए थे । ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के दोनों चरणों में भी ऐसे कई सारे नजारे दिखे। तब एक वर्ग की नजर में राहुल की ऐसी कोशिशों से राजनीति बदलने लगी थी। लेकिन तेलंगाना छोड़, राहुल के ऐसे कदमों का कोई चुनावी फायदा नहीं मिला।

इस प्रसंग में सवाल उठ सकता है कि प्रधानमंत्री भी तो ऐसे काम अक्सर करते हैं। काशी के गंगा घाट और प्रयागराज कुंभ जैसे कई मौकों और जगहों पर मोदी सफाई कर्मचारियों का पैर धो चुके हैं, उनके साथ भोजन कर चुके हैं, अयोध्या में अचानक गरीबों के घर पहुंच नेह जताते रहे, किसी परियोजना के पूरा होने के बाद उसमें श्रमस्वेद बहा चुके मजदूरों संग खाना खाते रहे हैं। तो उन पर ऐसे सवाल क्यों नहीं उठते। ऐसा नहीं कि सवाल नहीं उठते। वैचारिक खांचे में बंटी राजनीति और समाज में महज विरोध के लिए सवाल उठते रहे हैं। जिनका जवाब बीजेपी की बजाय वोटर देते रहे हैं।

सवाल है कि राहुल के लोक लुभावन कदमों के बावजूद लोग कांग्रेस के साथ क्यों नहीं खड़ा हो रहे? कुछ महीने पहले कांग्रेस के अंदरूनी हलके में वरिष्ठ नेताओं से पार्टी को उबारने को लेकर राय मांगी गई थी। तब कुछ नेताओं ने अपने घनिष्ठ प्रबुद्ध लोगों की राय मांगी थी। ये पता नहीं कि नेताओं ने पार्टी को सफलता के गुर सुझाए या नहीं । वैसे कांग्रेस के जैसे अंदरूनी हालात हैं, शायद ही कोई नेता सही और वाजिब राय देने का साहस जुटा पाए। सियासी नाकामी से उबारने का नुस्खा वरिष्ठ कांग्रेसियों के पास भी है। चूंकि यह नुस्खा बेहद कड़वा है। डर ये है कि कड़वी दवा सुझाना कठिन हो सकता है। लिहाजा राय देने से लोग बच रहे हैं।

स्वाधीनता आंदोलन की प्रतिनिधि पार्टी रही कांग्रेस अखिल भारतीय संगठन से लैस है। सत्तावादी राजनीति के दौर में कांग्रेस इस थाती पर गर्व कर सकती है। लेकिन संगठन को गतिशील बनाने वाले सही मुद्दों और लोकमर्म को छूने वाले विचारों से वह सर्वथा दूर है। राहुल उन्हीं मुद्दों को ज्यादा उछालते हैं, जिन्हें उनके वामपंथी सलाहकार सुझाते हैं। बौद्धिक और अकादमिक जगत इससे चाहे जितना भी आकर्षित हो, जमीनी स्तर पर वह अस्वीकार्य हो चुकी है। निजीकरण की कुछ खामियां हैं, लेकिन भूलना नहीं होगा कि  निजीकरण ने चमक-दमक भी बढ़ाई है। भले ही एक वर्ग तक निजीकरण की रोशनी नहीं पहुंच सकी है। उस वर्ग का भी सपना चमक को हासिल करना है। वामपंथी वैचारिकी इसे नहीं समझती। वह जाहिर करती रही है कि अतीत की तरह अब भी समूचा देश अंधेरे में डूबा है। वह भूल जाती है कि देश पर सबसे ज्यादा दिनों तक कांग्रेस का ही शासन रहा है। 

जातिवाद कड़वी सच्चाई है। हजारों साल की परंपरा का एकदम खत्म होना संभव नहीं। कड़वा सच है कि जातिवाद को दूर करने और उससे दूर रहने का दावा करने वाली राजनीति और बौद्धिक भी इनसे अछूते नहीं। उनके अंदरूनी खांचे में जातिवाद कई रूपों में मौजूद है। वैसे जाति और धर्म के संदर्भ में समूचे देश और समाज को एक फॉर्मूले से समझना संभव नहीं। कांग्रेस यही गलती दोहरा रही है। राहुल के सलाहकारों की टीम उन्हें इसी फॉर्मूले में बार-बार आगे बढ़ने का सुझाव देती है। अब तो योगेंद्र यादव भी राहुल गांधी के बड़े सलाहकार हैं। समाजवादी दिग्गज किशन पटनायक के शिष्य यादव की सोच पर समाजवाद का कम, वामपंथ का असर ज्यादा है। 1999 में एक्जिट पोल को काला जादू न मानने वाले योगेंद्र को अब बीजेपी की हर जीत में शंका ही नजर आती है। कांग्रेस आलाकमान के तमाम सलाहकार कभी शिक्षा के लालगढ़ की राजनीति के प्रतीक रहे। दुर्भाग्यवश उनकी सामाजिक सोच जमीनी हकीकत की बजाय वामपंथी दर्शन से ज्यादा प्रभावित है। इस टीम के अनुसार ऊंच-नीच और जात-पांत  का विचार समूचे देश में एक जैसा है। लेकिन यह अधूरा सच है। समूचा देश ना तो एक तरह से सोचता है ना ही उसका एक-सा व्यवहार है। शीर्ष नेतृत्व की सलाहकार मंडली अलग-अलग हिस्सों की माटी के रंग, व्यवहार और विचार से कोसों दूर है। 

राहुल को इन दिनों अपनी दादी इंदिरा गांधी की याद खूब आती है। लेकिन वे इंदिरा के कई गुणों को अब तक समझ नहीं पाए हैं..। समाज को लेकर इंदिरा की समझ गहरी थी। यही वजह है कि वक्त और इलाके की परंपरा के मुताबिक, किसी इलाके में ठेठ बहू बन जाती थीं, तो किसी इलाके में आधुनिक महिला।  कुछ इलाकों में वे अपने सिर पल्लू रखती थीं तो कुछ इलाकों में नहीं। आज इंदिरा रहतीं और वैसा करतीं तो शायद कांग्रेस के मौजूदा सिपहसालारों की नजर में वे दकियानूस मान ली जातीं।

स्वाधीनता आंदोलन के दौरान कांग्रेस की छतरी तले कई विचारधाराएं काम कर रही थीं। इंदिरा काल के किंचित वामपंथीकरण को छोड़ दें तो पार्टी का नजरिया ज्यादातर मध्यमार्गी और समाजवादी ही रहा। इंदिरा काल में वामपंथी प्रभाव इतना नहीं रहा कि वह अपनी बुनियादी विचारधारा को ही बदल दे। लेकिन आज देश की सबसे पुरानी पार्टी पर वामपंथ का खूब असर है। इसलिए उसके मुद्दे भी इसी से प्रभावित हैं। वाम वैचारिकी हर मुद्दे को नैरेटिव विशेष के लिहाज से उछालती है। सांप्रदायिकता,धर्म और जाति से जुड़े उसके विचार पारंपरिकता से इतर हैं। बीजेपी के खिलाफ हर बार सांप्रदायिकता का वामपंथी एजेंडा और नैरेटिव का उठाना इसी मंडली की कारसाजी होती है। इस नजरिया वाली सांप्रदायिकता का प्रतिकार सूत्र बीजेपी ने खोज लिया है। उसके लिए यह पिच आसान हो गई है। इसीलिए वह ज्यादातर चुनावों में कांग्रेस को मात दे रही है। इसी सोच के चलते कांग्रेस यूपी, बिहार जैसे राज्यों में उन दलों के छोटे भाई की भूमिका तक सीमित हो गई है, जिनका उदय गैरकांग्रेसवाद की बुनियाद पर हुआ है। साक्षर और सूचना से लैस लोग इन प्रतीकों के छुपे संदेशों को समझने-बूझने लगे हैं। लेकिन कांग्रेस इस प्रक्रिया को नहीं समझ पा रही।

बिहार में कांग्रेस का बड़ा दांव नहीं रहा । 243 सीटों वाली विधानसभा में वह महज 61 सीटों पर मैदान में रही। मछली पकड़े और तालाब में छपाक करने का राहुल दांव नाकाम रहा। फिर भी अगर राहुल की वैचारिकी और रणनीति पर कांग्रेस में सवाल नहीं उठ रहा, तो हैरत होना स्वाभाविक है।

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