नारद मुनि के हृदय में संतोष के साथ थोड़ा गर्व भी उत्पन्न हो गया। वे सोचने लगे कि इतना महान कार्य किया, पर इसकी गवाही कौन देगा? वन में तो न कोई मनुष्य है, न कोई साक्षी। पेड़-पौधे क्या प्रशंसा करेंगे? फिर विचार आया कि यदि मैं यह कथा सामान्य जन को सुनाऊँगा तो वे तो स्तुति ही करेंगे...
यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि कभी-कभी सोने जैसी पवित्र और उज्ज्वल आत्मा पर भी अहंकार का जंग चढ़ जाता है। सामान्यतः यह असंभव लगता है, पर देवर्षि नारद के प्रसंग में यह सत्य प्रतीत होता है। नारद मुनि अत्यंत महान तपस्वी थे। उन्होंने एक बार गहन ध्यान में बैठकर कामदेव जैसे शक्तिशाली देवता को भी अपने तेज और तप से पराजित कर दिया। कामदेव ने अपने सभी बाण चला दिए, वातावरण को मदमय बना दिया, पर मुनि के मन में तनिक भी कंपन न हुआ। वह पराजित होकर देवसभा में पहुँचा और देवराज इन्द्र को सब बताया। इन्द्र सहित सभी देवता यह सुनकर चकित हो गए। तुलसीदास जी ने इस प्रसंग को सुंदर शब्दों में कहा हैकृ “मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी।। सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा।।ष् कृ अर्थात कामदेव ने इन्द्र सभा में जाकर नारद की महानता का बखान किया और सभी देवता यह जानकर चमत्कृत रह गए। सभी ने नारद की प्रशंसा तो की, पर सिर भगवान विष्णु के चरणों में झुकाया, क्योंकि वे समझते थे कि ऐसी असंभव विजय केवल प्रभु की कृपा से ही संभव होती है।
इधर नारद मुनि के हृदय में संतोष के साथ थोड़ा गर्व भी उत्पन्न हो गया। वे सोचने लगे कि इतना महान कार्य किया, पर इसकी गवाही कौन देगा? वन में तो न कोई मनुष्य है, न कोई साक्षी। पेड़-पौधे क्या प्रशंसा करेंगे? फिर विचार आया कि यदि मैं यह कथा सामान्य जन को सुनाऊँगा तो वे तो स्तुति ही करेंगे, किंतु प्रतिद्वंदी से प्रशंसा मिले तो वही सच्ची जीत होती है। उन्होंने निश्चय किया कि भगवान शंकर को यह कथा सुनानी चाहिए, क्योंकि उन्होंने भी कामदेव को जलाया था। नारद मुनि मन में सोचते हुए कैलास पर्वत पहुँचे और हर्षपूर्वक भगवान शंकर से बोलेकृ “भगवन! मैंने भी कामदेव को जीत लिया।” वे अपने पराक्रम का वर्णन गर्व से करते रहे।
भगवान शंकर मुस्कराकर सब सुनते रहे, किंतु उनके मन में विचार चल रहा था कि आज वही मुनि, जिनकी वाणी से मैं श्रीराम चरित का अमृत रस सुनता हूँ, उन्हीं के मुख से आज कामचरित का श्रवण करना पड़ रहा है। यह कथा तो जैसे विष के समान है। जब मैंने कालकूट विष पिया था तब भी इतना क्लेश नहीं हुआ जितना इस अहंकार मिश्रित कथा को सुनकर हो रहा है। परंतु शंकर अत्यंत धैर्यवान हैं, उन्होंने मुनि का अपमान नहीं किया। वे सोचने लगे कि नारद की रक्षा तो भगवान विष्णु ने ही की थी। मुनि तो श्रीहरि के ध्यान में लीन थे, और जब भक्त ईश्वर के ध्यान में होता है, तब उसकी रक्षा की जिम्मेदारी स्वयं भगवान की होती है। ऐसे में कामदेव के बाण निष्फल हुए, यह मुनि की नहीं, प्रभु की विजय थी।
कथा समाप्त होने पर भगवान शंकर ने अत्यंत नम्रता से कहा, “हे देवर्षि! आपने जो कहा वह सुन लिया। किंतु मेरी एक विनती हैकृ इस घटना का वर्णन भूलकर भी भगवान विष्णु के समक्ष मत करना। ऐसी बातें भक्त के अहंकार को बढ़ाती हैं, और जो अहंकार में डूब जाता है, वह अपनी साधना की सार्थकता खो देता है। यदि कहीं यह चर्चा छिड़े तो विषय बदल देना।” नारद मुनि ने बाहर से तो सिर झुकाकर हाँ कह दी, पर मन में सोचने लगे कि शिवजी यह बात ईर्ष्या के कारण कह रहे हैं। उन्हें अच्छा नहीं लगा कि अब कामदेव पर विजय की महिमा केवल उन्हीं की नहीं रही। वे यह नहीं समझ पाए कि शंकर की यह सलाह उनके हित के लिए थी।
यह प्रसंग हमें सिखाता है कि तपस्या, ज्ञान या सफलताकृ किसी भी क्षेत्र मेंकृ यदि “मैंने किया” का भाव आ जाए, तो वही अहंकार बनकर पतन का कारण होता है। कामदेव इंद्रियों को विचलित करता है, पर अहंकार आत्मा को डगमगा देता है। सच्ची विजय वही है जिसमें ‘मैं’ का भाव न रहे, केवल ‘भगवान की कृपा’ का अनुभव हो। नारद मुनि की इस छोटी-सी भूल का परिणाम आगे चलकर बहुत बड़ा हुआ, जब उन्होंने वही कथा भगवान विष्णु को सुनाई और उनसे श्राप प्राप्त किया। पर वह अगला प्रसंग है, जिसे जानना अगले अंक का विषय रहेगा।
इसलिए जीवन में जब भी कोई सफलता मिले, तो यह स्मरण रहे कि शक्ति हमारी नहीं, ईश्वर की है; हम केवल उनके माध्यम हैं। यही भाव मनुष्य को गर्व से बचाता है और उसकी साधना को सार्थक बनाता है।
