Ads Area

Aaradhya beauty parlour Publish Your Ad Here Shambhavi Mobile

‘जो अपनी ओर आकर्षित कर लें वही कृष्ण’

sv news


षष्ठम दिवस श्रीकृष्ण-रूक्मिणी विवाह, जरासंध-कालयवन उद्वार की कथा सुन आनंदित हुए श्रोतागण

मेजा, प्रयागराज (विमल पाण्डेय)। उरुवा विकास खंड अंतर्गत सोरांव गांव में श्रीमद् भागवत ज्ञान सप्ताह के षष्ठम दिवस की पावन बेला में अयोध्या धाम से पधारे अंतरराष्ट्रीय कथा वाचक बालशुक पंडित देव कृष्ण शास्त्री जी महाराज का मुख्य यजमान श्रीमती निर्मला देवी शुक्ला पत्नी गोलोकवासी पंडित त्रिवेणी प्रसाद शुक्ल व सुपुत्र भूपेन्द्र उर्फ पिंकू शुक्ल ने भागवत भगवान, व्यासपीठ और पुरोहित बबुन्ने ओझा का तिलक व माल्यार्पण कर आरती उतारी।  

sv news

श्री शुकदेव जी कहते हैं कि अक्रूर जी प्रातरूकाल होते ही रथ पर सवार होकर गोकुल की ओर चल पड़े। मार्ग में ही श्रीकृष्ण भक्ति में परिपूर्ण हो गए। सोचते हुए जा रहे हैं कि आज मुझे सहज ही आंखों का फल मिल जाएगा। श्रीकृष्ण सबके ही एक मात्र आश्रय हैं। कई प्रकार की कल्पनाएं करते  हुए  शाम होते होते वे नंदगांव पहुंच गए। श्रीकृष्ण और बलराम के दर्शन उन्हें गायों को दोहने के स्थान पर ही हो गए। दोनों ने अक्रूर जी को एक एक हाथ से पकड़ा और घर ले गए। अक्रूर जी का ख़ूब स्वागत सत्कार हुआ। आसन दिया गया। श्रीकृष्ण जी ने अपने चाचा के पैर दबाए। बलराम जी द्वारा सुगंधित माला देकर स्वागत किया गया। नंदजी ने कुशल क्षेम पूछी।  यशोदा जी ने बढ़िया भोजन की व्यवस्था की। अक्रूर जी ने वहां का सारा कुशल क्षेम बताने के बाद अपने आने का कारण भी उनको बताया। कृष्ण को ले जाने की बात सुन कर यशोदा जी तो रोने लगीं और यह जानकर कि कृष्ण देवकी का पुत्र  है वो मानने को तैयार नहीं थीं। उन्होंने कृष्ण को भेजने से  बिल्कुल मना कर दिया। तब कृष्ण जी ने ही माता को कहा कि माता मुझे लोग यशोदा के पुत्र के रूप में ही जानेंगे। तुम ही मेरी माता हो। परंतु इस समय मेरा मथुरा जाना अति आवश्यक हो गया है। इस लिए आप एक बार मुझे और दाऊ भइया को जाने की आज्ञा प्रदान करें। गोपियों ने कहा, हे विधाता तुम सब विधान तो करते हो परंतु तुम्हारे हृदय में दया लेश मात्र भी नहीं है। पहले तो तुम प्रेम से जगत के प्राणियों को एक दूसरे के साथ जोड़ देते हो। उन्हें आपस में एक कर देते हो। परंतु अभी उनकी  आशाएं अभिलाषाएं पुरी भी नहीं होती हैं कि तुम उन्हें व्यर्थ ही अलग अलग कर देते हो। गोपियां कभी अक्रूर  जी  को  कोसती तो कभी ग्वालों को, जो मथुरा जाने की तैयारी कर रहे थे। गोपियां विरह की संभावना से ही व्याकुल होकर रोने लगीं।

यूं ही रात बीत गई। अक्रूर जी, श्रीकृष्ण और बलराम जी को लेकर रथ पर सवार हो गए। उन्होंने रथ को हांका  और लेकर चल दिए। नंद बाबा आदि गोप भी  सामग्रियों  से  भरे  छकड़ों पर चढ़ कर उनके पीछे पीछे चल पड़े। कृष्ण जी ने देखा कि एक स्थान पर गोपियां खड़ी रो रही हैं। श्री कृष्ण जी ने एक दूत भेज कर यह संदेश उन तक पहुंचाया कि, मैं आऊंगा यह संदेश भेजकर उन्हें धीरज बंधाया। गोपियां खड़ी तो उधर ही रहीं परंतु अपना चित्त उन्होंने कान्हा के साथ ही भेज दिया था। वे निराश होकर वापिस लौट आईं और हर समय श्रीकृष्ण जी की लीलाओं का गान करती रहती थीं।

इधर भगवान का रथ पाप नाशिनी यमुना जी के  किनारे जा पहुंचा। श्रीकृष्ण और बलराम हाथ मुंह धोकर फिर  से रथ में सवार हो गए। श्री अक्रूर जी आज्ञा लेकर यमुना जी के कुंड (अनन्त तीर्थ या ब्रमहृद) पर आकर विधि पूर्वक स्नान करने के लिए डुबकी लगा कर गायत्री  का जाप  करने  लगे।  उसी समय उनको जल के भीतर ही दोनों भाई बैठे हुए दिखाई पड़े। जब अपना सिर पानी से बाहर निकाल कर देखा तो वहां रथ बैठे दिखाई दिए। फिर डुबकी लगाई तो देखा  कि  साक्षात अनन्त देव श्री शेष जी और भगवान स्वयं विराजमान हैं और सिद्ध, चारण, गंधर्व  एवं असुर अपने अपने सिर झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं। चतुर्भुज के साथ ही लक्ष्मी, पुष्टि, सरस्वती, कांति, कीर्ति और तुष्टि आदि शक्तिआं मूर्तिमान होकर उनकी सेवा कर रही हैं। पार्षद  स्तुति  कर  रहे  हैं। इस तरह अक्रूर जी को परम भक्ति प्राप्त हो गई। साहस  बटोरकर भगवान के चरणों में सिर रख कर प्रणाम किया और  धीरे धीरे गद गद स्वर से भगवान की  स्तुति  करने  लगे। 

अक्रूर जी रथ को लेकर आगे चल पड़े। रास्ते में गांवों के लोग जब भगवान के आकर्षण  को  देखते तो देखते ही रह जाते। उनका रथ मथुरा पहुंचा। नंद जी अपने साथियों के साथ पहले ही पहुंच चुके थे। कृष्ण जी ने अक्रूर को घर भेज दिया और स्वयं नगर देखने चल पड़े। नगर के लोगों  ने  उनके  और उनकी लीलाओं के बारे में बहुत सुन रखा था। वे उनको नज़र भरकर देख लेना चाहते थे। चलते चलते रास्ते में एक धोबी के बुरे व्यव्हार की उसे सज़ा दी, और सुदामा माली ने भगवान की पूजा कर उनसे भक्ति और संपत्ति का वरदान पाया।

उबटन लगाने वाली सैरंध्री (कुब्जा) ने कहा,हे परम सुंदर, मैं कंस की दासी हूँ। मेरा नाम  त्रिवक्रा (कुब्जा) है। उन्हें मेरा बनाया अंगराग बहुत भाता है। परंतु आप दोनों से  उत्तम कोई और पात्र नहीं है। यह कहते हुए चंदन से भरा पात्र  कृष्ण को दे दिया और अपना हृदय उन पर न्योछावर कर दिया। भगवान ने उस पर ऐसी कृपा करी कि उसका कूबड  एक दम सीधा हो गया और वो एक सुंदर स्त्री बन गई। उसी समय उसके मन में भगवान को घर  लेजाने की  कामना  जागृत  हो उठी। श्रीकृष्ण ने कहा,ष्मैं आवश्य आऊंगा।ष् भगवान ने यह सिद्ध किया कि सुंदरता तन की नहीं मन की होती है।

भगवान हर एक को संभलने का अवसर देते हैं। उन्होंने धनुष भंग करके कंस को भी संदेश दिया था। परंतु कहते हैं ना कि विनाश काले विपरीत बुद्धि। भीतर जाकर धनुष को देखा, उठाया, डोरी बांधने के लिए डोरी खींची और रक्षकों के रोकते रोकते ही उसके दो टुकड़े कर दिए।

श्रीकृष्ण जी और बलराम जी भी दंगल के अनुरूप नगाड़े की ध्वनि सुनकर रंग भूमि देखने के लिए चल पड़े। दरवाजे पर महावत कुवल्यापीड़ नामक हाथी को लेकर खडा था। श्रीकृष्ण के रास्ता मांगने पर उल्टा उसने हाथी को ही उन पर छोड़ दिया। भगवान ने अपने पैरों से ही उस  हाथी को कुचल दिया। उसके दांत उखाड़ कर पहले तो उस महावत को मारा और बाद में उन्हीं दांतों को दोनों ने अपने अपने कंधों पर अस्त्र की तरह सुशोभित करके अखाड़े में प्रवेश किया। वे दोनों किसी को बालक तो किसी को योद्धा, किसी को मित्र तो किसी को शत्रु और किसी को भगवान दिखाई दे रहे थे। इसी लिए कहा है कि जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरती देखी तिन तैसी।

वहां पर बैठे सभी नागरिक इस अन्याय पर विचार कर रहे थे। परंतु बोलने की किसी की हिम्मत ना थी। कंस  किसी  की सुनने को तैयार भी कहां था। श्रीकृष्ण जी की कुश्ती चाणूर से और बलराम जी की मुष्टिक से हुई। वज्र से कठोर दोनों भाइयों के शरीरों से रगड़ने के कारण चाणूर और मुष्टिक दोनों की रग रग ढीली पड़ गई। कुछ ही पलों में वे ढ़ेर हो गए और मारे गए। इसी तरह बाकी के पहलवान भी मारे गए। 

इतना सुनते ही श्रीकृष्ण कुपित होकर वेग पूर्वक उछलकर उसके मंच की ओर बढ़े। कंस ने संभलते हुए अपनी तलवार को उठाया। इससे पूर्व की वो भगवान पर आक्रमण करता, श्रीकृष्ण ने उसे बलपूर्वक पकड़ा और उसका मुकुट दूर जा गिरा। प्रभु श्रीकृष्ण ने उसको बालों से पकड़ा और पूरे ज़ोर से नीचे भूमि पर पटक दिया। और स्वयं वहीं से उछल कर उसकी छाती पर ऐसा कूदे कि एक ही झटके में उसके प्राण निकल गए। मरते समय भी कंस का पूरा चिंतन कृष्ण पर ही केन्द्रित था। इसलिए उसका उद्धार हुआ। उसके आठ भाई थे जिन्होंने बदला लेने के लिए प्रयत्न किया किन्तु मारे गए।

रुक्मिणी विवाह का वर्णन करते हुऐ कहा कि भगवान श्रीकृष्ण ने सभी राजाओं को हराकर विदर्भ की राजकुमारी रुक्मिणी को द्वारका में लाकर उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। मौके पर आयोजक मंडली की ओर से आकर्षक वेश-भूषा में श्रीकृष्ण व रुक्मिणी विवाह की झांकी प्रस्तुत कर विवाह संस्कार की रस्मों को पूरा किया गया। कथा के साथ-साथ भजन संगीत भी प्रस्तुत किया गया।

भागवत भगवान की आरती और प्रसाद वितरण के पश्चात कथा को विराम दिया जाता है। कथा श्रवण के दौरान पूर्व जिला पंचायत सदस्य लक्ष्मी शंकर उर्फ लल्लन शुक्ल, पूर्व प्रधान केशव प्रसाद शुक्ल, पूर्व प्रधान नागेश्वर प्रसाद शुक्ल, पूर्व उपप्रधान नागेश्वर प्रसाद उर्फ कलट्टर शुक्ल, विहिप जिलाध्यक्ष ई. नित्यानंद उपाध्याय, सिद्धांत तिवारी, दिनेश तिवारी, कथा व्यवस्थापक उरुवा ब्लाक प्रमुख पद प्रत्याशी श्याम नारायण उर्फ लोलारक शुक्ल, नरेंद्र कुमार शुक्ल, लल्लू शुक्ल, सहित भारी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित रहे। 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

Top Post Ad