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प्रयागराज की सड़कों पर छाया सन्नाटा

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प्रयागराज (राजेश सिंह)। पत्थर गिरजा घर के पास बना अस्थायी आश्रय स्थल उजड़ रहा था। एक श्रमिक ने दरियों को समेटना जुटा था। पास में खड़े 50 वर्षीय कमलेश एक टक यह नजारा देखे जा रहे थे। आखिर रहा न गया तो उनसे पूछ ही बैठे...क्या देख रहे हो भाई।

जवाब मिला...महाकुंभ के बाद शहर का हाल। ऐसा लगता है बरात विदा हो गई और खाली जनवासा बचा है। अब समझ में आया, जिसे हम भीड़ कह रहे थे, असल में वही रौनक थी। अब तो कोई यह भी पूछने वाला भी नहीं है कि संगम किधर है...।

45 दिनों तक त्रिवेणी तट पर आस्था का मेला लगा रहा। प्रतिदिन नया उल्लास, उमंग देखने को मिला। मानों समूची सृष्टि त्रिवेणी की ओर चल पड़ी थी। देवरूपी अतिथि के स्वागत में शहर सबरी हो गया। श्रद्धालुओं के मीलों पैदल चलने की पीड़ा और जाम के झाम ने सभी को दुखी भी किया, लेकिन अब सड़कें सूनी हैं।

सुभाष चौराहा पर एक दुकान में चाय पी रहे शीवेंद्र सिंह पास में खड़े मंजीत से कहते हैं कि शहर को जाम से निजात मिल गई। न वीवीआइपी के वाहनों के हूटर का शोर है न आवागमन में ट्रैफिक पुलिस की टोका टाकी। फिर भी न जाने क्यों कुछ कमी सी महसूस हो रही है।

मंजीत कहते हैं कि भले ही सड़कों पर चहल-पहल है। लेकिन, वह रौनक नहीं जो दो दिन पहले तक थी। आनंद भवन के पास गन्ने का जूस बेचने वाले घनश्याम ने कहा शहर फिर से पुराने राव-रंग में है। लेकिन, पता नहीं क्यों ऐसा लगता है जैसे कुछ खो गया हो। श्रद्धालुओं को संगम की राह दिखाते-दिखाते सुबह से कब शाम हो जाती थी, मालूम ही नहीं चलता था। अब कौन पूछेगा संगम किधर है...।

सोहबतिया बाग के पास रहने वाले श्यामबाबू ने कहा कि महाकुंभ ने श्रद्धालुओं की सेवा करके पुण्य कमाने का अवसर दिया। एक भी दिन ऐसा नहीं था, जब घर में कोई न कोई श्रद्धालु रहा न हो। मेले के समापन के बाद अब मायूसी सी लग रही है। चौक के पास कुछ ई-रिक्शा चालक फुरसत में दिखे। इनके बीच महाकुंभ को लेकर ही चर्चाएं चल रही थीं।

अपने ई-रिक्शा पर बैठे-बैठे ही पवन बोले महाकुंभ में इतना काम था कि फुरसत नहीं मिलती थी। लोग मुंह मांगा किराया देकर जाते थे। अब पांच लोग किराया पूछते हैं, तब कहीं एक जाने को राजी होता है। उनकी बात खत्म होते ही सुरेश बोले...महाकुंभ नहीं वह टैक्सी व ई-रिक्शा चालकों के लिए सहालग थी, जो अब बीत गई है।

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