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राखीगढ़ी से आगे, अब प्रतापगढ़ के कंकाल बदलेंगे मानव इतिहास!

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प्रयागराज( राजेश सिंह)। कभी-कभी इतिहास किसी किताब में नहीं, बल्कि चुपचाप पड़ी हड्डियों में सांस ले रहा होता है। मानव सभ्यता के इतिहास में शायद पहली बार हड्डियां इतिहासकारों से ज्यादा मुखर होने जा रही हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भी ऐसे ही 150 मानव कंकाल रखे गए हैं, जिन्हें एक बार फिर श्जीवितश् किया जाने वाला है। ये उठकर चलने वाले तो नहीं, पर इनका डीएनए जरूर बोलेगा।

राखीगढ़ी (हिसार-हरियाणा) के कंकालों ने जब दुनिया को बताया था कि सिंधु घाटी सभ्यता किसी बाहरी नस्ल की देन नहीं, बल्कि इसी मिट्टी की संतान हैं। तो इतिहास की धड़कनें तेज हो गई थीं। अब वही लखनऊ के बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान (बीएसआइपी) के वैज्ञानिक इन और अधिक प्राचीन कंकालों (लगभग सात हजार ईसा पूर्व) के डीएनए को पढ़ने जा रहे हैं। इन कंकालों की औसत लंबाई आज के किसी अंतरराष्ट्रीय बास्केटबाल खिलाड़ी से भी ज्यादा करीब 193 सेंटीमीटर थी।

इन्हें प्रतापगढ़ के दमदमा, महदहा और सरायनाहर स्थलों से 1973 से 1980 के बीच उत्खनन में निकाला गया था। ये श्मौन पूर्वजश् अगर बोल पड़े, तो यह खोज सिर्फ किताबें नहीं बदलेगी, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप की प्राचीनता को नए सिरे से परिभाषित करेगी। विश्व इतिहास की उस अवधारणा को भी चुनौती देगी, जिसमें भारतीय सभ्यता को बाहरी प्रभावों से विकसित माना गया था।

बीएसआइपी के विज्ञानी डॉ. नीरज राय और उनकी टीम इन कंकालों से प्राप्त आनुवंशिक (जेनेटिक) डेटा का विश्लेषण करेंगे ताकि यह जाना जा सके कि इनका संबंध भारत की किन प्राचीन जनजातियों या समुदायों से था। इस अध्ययन के माध्यम से यह भी पता लगाया जाएगा कि क्या इनका कोई संबंध सिंधु घाटी सभ्यता या उससे भी पहले की मानव बसावटों से जुड़ता है। सात हजार ईसा पूर्व के नरकंकालों की जांच से यह तथ्य और भी प्रामाणिक रूप से सिद्ध होगा। पिछले वर्ष इवि व बीएसआइपी के बीच एमओयू हुआ था।

डॉ. नीरज राय और उनकी टीम राखीगढ़ी के अध्ययन से भी आगे जाकर भारत की प्राचीन मानव उपस्थिति, जैविक निरंतरता और सांस्कृतिक विकास का एक ठोस वैज्ञानिक प्रमाण प्रस्तुत कर सकती है। इससे पहले हरियाणा के राखीगढ़ी स्थल से मिले लगभग 3500 ईसा पूर्व के मानव अवशेषों की जीनोम सीक्वेंसिंग ने दुनिया को चौंका दिया था।

बीएसआइपी के डॉ. नीरज राय और उनकी टीम के ही अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ था कि सिंधु घाटी सभ्यता के निर्माता विदेशी नहीं, बल्कि भारतीय मूल के ही थे, जिनका 93 प्रतिशत आनुवंशिक संबंध तमिलनाडु की इरुला जनजाति से मेल खाता है। इससे आर्यों के भारत में बाहर से आने की पुरानी औपनिवेशिक धारणा खंडित हो गई थी। शोध में यह साबित किया कि भारत में 3500 ईसा पूर्व ही एक उन्नत सभ्यता मौजूद थी।

नर कंकालों की औसत लंबाई 193 सेंटीमीटर

प्राचीन इतिहास संस्कृति के पुरातत्व विभाग के सहायक प्रोफेसर और पुरातत्वविद शैलेश यादव बताते हैं कि ब्रिटिश काल में आर्यों के भारत में बाहर से आने की थ्योरी औपनिवेशिक दृष्टिकोण से गढ़ी गई थी। वे यह दिखाना चाहते थे कि भारत का विकास विदेशी शासन में ही संभव हुआ। इवि में रखे इन कंकालों में सबसे चौंकाने वाली बात इन कंकालों की काया। औसत पुरुष की लंबाई 193 सेंटीमीटर यानी आज के किसी इंटरनेशनल बास्केटबाल खिलाड़ी जितनी। महिलाएं भी औसतन 173 सेंटीमीटर की। एक 55 वर्षीय महिला का कंकाल लगभग छह फीट का। जो यह बताता है कि उस युग का भारतीय न सिर्फ सांस्कृतिक रूप से उन्नत था, बल्कि शारीरिक रूप से भी अद्भुत रूप से विकसित। दांतों के माइक्रोवियर एनालिसिस से पता चलता है कि महिलाएं अनाज अधिक खाती थीं, पुरुष मांस। जिससे उस काल के आहार-पद्धति और सामाजिक भूमिका के संकेत मिलते हैं।

50 से अधिक कंकाल पूर्ण रूप में सुरक्षित

150 कंकालों में से वर्तमान में 50 से ज्यादा पूर्णतः सुरक्षित हैं। इवि के सहायक प्रोफेसर और पुरातत्वविद अतुल नारायण सिंह कहते हैं कि ये महज हड्डियां नहीं। ये गंगा घाटी सभ्यता के मौन साक्षी हैं। दमदमा और महदहा जैसे स्थल इस बात के साक्ष्य हैं कि यहां मानव बसावटें कम से कम छह सहस्त्राब्दि ईसा पूर्व विद्यमान थीं।

यदि इनका जीनोमिक डेटा राखीगढ़ी या इरुला समुदाय से जुड़ता है तो यह साबित हो जाएगा कि भारत की जैविक निरंतरता सात हजार वर्षों से अखंड है। इसका मतलब आर्य आक्रमण सिद्धांत केवल उपनिवेशवादी थोपे गए मिथक थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय और बीएसआइपी के बीच हुआ एमओयू अब इस दिशा में पहला औपचारिक कदम है।

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