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आखिर कहाँ जाएँ बांग्लादेशी हिंदू?



शेख हसीना को हटाने के बाद से बांग्लादेश में जो माहौल बना है, उसने अल्पसंख्यक समुदायों विशेषकर हिंदुओं के जीवन को दहशत में बदल दिया है। मंदिर जलाने, हिंदुओं के घरों पर हमले, परिवारों का रातों-रात पलायन और अब स्वतंत्रता सेनानियों की हत्या जैसे मामलों ने दुनिया को झकझोर दिया है....

बांग्लादेश के रांगपुर में 1971 के मुक्ति संग्राम के वीर योद्धा जोगेश चंद्र रॉय और उनकी पत्नी सुबर्णा रॉय की गला रेतकर हत्या ने जनमानस के मन-मस्तिष्क को झकझोर दिया है। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या यह केवल एक सनसनीखेज आपराधिक घटना है या फिर यह उस गहरी बीमारी का लक्षण है जिसने बांग्लादेश की आत्मा को भीतर तक खोखला कर दिया है? 75 वर्ष के एक स्वतंत्रता सेनानी की इस तरह घर में बेरहमी से हत्या होना किसी भी समाज के लिए शर्म की बात है, लेकिन बांग्लादेश के संदर्भ में यह घटना और भी भयावह इसलिए है क्योंकि यह उस सतत बढ़ते पैटर्न का हिस्सा है जिसमें अल्पसंख्यक हिंदुओं की सुरक्षा लगातार बिगड़ती जा रही है।

रिपोर्टों के मुताबिक, सुबह जब पड़ोसियों ने दरवाज़ा खटखटाया और कोई जवाब नहीं मिला, तो वह सीढ़ी लगाकर भीतर गए, जहाँ पति का शव डाइनिंग रूम में और पत्नी का शव रसोई में पड़ा था। दोनों के गले बेरहमी से काटे गए थे। न लूटपाट, न कोई विवाद, न कोई सुराग, केवल एक भयावह चुप्पी थी। पुलिस के पास न कोई संदिग्ध है, न कोई दिशा और न किसी तरह की प्रगति। यह एक अकेली घटना नहीं, बल्कि उस अव्यवस्था का प्रतिबिंब है जिसमें आज बांग्लादेश का प्रशासन पूरी तरह जकड़ा हुआ है।

देखा जाये तो शेख हसीना को हटाने के बाद से बांग्लादेश में जो माहौल बना है, उसने अल्पसंख्यक समुदायों विशेषकर हिंदुओं, के जीवन को दहशत में बदल दिया है। मंदिर जलाने, हिंदुओं के घरों पर हमले, परिवारों का रातों-रात पलायन और अब स्वतंत्रता सेनानियों की हत्या जैसे मामलों ने दुनिया को झकझोर दिया है। इन सब घटनाओं के बावजूद अंतरिम शासक मुहम्मद यूनुस चुप्पी साधे हुए हैं। सवाल उठता है कि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार अल्पसंख्यक हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार के प्रति आखिर कब तक अपनी आँखें बंद रखेगी?

देखा जाये तो यूनुस शासन वास्तव में उन इस्लामवादी ताकतों के सहारे टिका है जिन्होंने हमेशा से अल्पसंख्यकों के अस्तित्व को चुनौती दी है। जमात-ए-इस्लामी जैसी कट्टरपंथी संगठन खुलकर सक्रिय हैं और उनके उभार का सीधा परिणाम हिंदुओं पर हमले, दहशत और अब टार्गेट किलिंग है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि बांग्लादेश का पुलिस ढांचा खुद अपंग हालत में है। 2024 के आंदोलन के दौरान जिस तरह पुलिस बल पर हमले हुए, उसके बाद आज तक स्थिति सामान्य नहीं हो पाई है। कई पुलिसकर्मी वापस ड्यूटी पर नहीं लौटे, कई मारे गए और कई लापता हैं। ऐसे में एक स्वतंत्रता सेनानी के दो बेटे जो खुद पुलिस में हैं, वह अपने माता-पिता की रक्षा तक सुनिश्चित नहीं कर सके तो फिर आम हिंदू परिवार किस पर भरोसा करे?

हम आपको यह भी बता दें कि भारत ने 2021 से अब तक बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हिंसा के 3,582 मामले आधिकारिक तौर पर उठाए हैं। मानवाधिकार संगठन चेतावनी पर चेतावनी जारी कर रहे हैं। लेकिन ढाका के सत्ता-गलियारों में यह सब प्रोपेगेंडा कहकर खारिज कर दिया जाता है। बांग्लादेश में हिंदुओं की जनसंख्या लगातार घट रही है। हर वर्ष हजारों परिवार पलायन कर रहे हैं और अब जब देश की स्वतंत्रता का प्रतीक व्यक्ति अपने ही घर में असहाय मारा जाता है, तो यह केवल अपराध नहीं, यह पूरे राष्ट्र के चरित्र पर प्रहार है। यह बताता है कि अब स्थिति केवल खराब नहीं, बल्कि नियंत्रण से बाहर हो चुकी है।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बांग्लादेश अपने अल्पसंख्यकों की रक्षा करने की क्षमता रखता है? या क्या बांग्लादेश में ऐसा करने की इच्छा भी बची है? सवाल यह भी उठता है कि यदि एक मुक्ति-योद्धा भी सुरक्षित नहीं है तो फिर अन्य कोई कैसे सुरक्षित हो सकता है? जोगेश चंद्र रॉय और उनकी पत्नी की हत्या एक चेतावनी है। एक ऐसी चेतावनी जिसे अनसुना करना बांग्लादेश को और भी गहरे अंधकार में धकेलेगा। दुनिया को भी अब इस स्थिति को आंतरिक मामला कहकर नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। यह एक देश, एक समुदाय और उस ऐतिहासिक संघर्ष की आत्मा पर हमला है जिसने बांग्लादेश को जन्म दिया था। यदि बांग्लादेश को अपनी बहुलतावादी पहचान बचानी है, तो उसे इस हिंसा पर लगाम लगानी ही होगी, वरना इतिहास एक दिन यही लिखेगा कि देश ने अपने ही नायकों, अपने ही नागरिकों और अपनी ही मानवता को खो दिया।

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