निबैया में श्रीमद्भागवत कथा के तीसरे दिन व्यास शम्भु शरण ने ध्रुव और जड़ भरत की मार्मिक कथा सुनाई
मेजा,प्रयागराज। (हरिश्चंद्र त्रिपाठी/राजेश गौड़)
मेजा तहसील के निबैया गांव में श्रीमद्भागवत कथा के तीसरे दिन कथा व्यास शम्भु शरण महाराज ने ध्रुव चरित्र और जड़ भरत की कथा का प्रसंग सुनाया।उन्होंने दूसरे दिन की कथा से आगे बढ़ते हुए ध्रुव चरित्र की कथा परीक्षित बने सपत्नीक लालजी शुक्ल और सपत्नीक श्यामजी शुक्ल सहित पंडाल में उपस्थित श्रोताओं को सुनते हुए कहा कि भगवान द्वारा भक्त की तपस्या से प्रसन्न होकर अटल पदवी देने का वर्णन किया।
कथा व्यास ने भगवत कथा में तीसरे दिन ध्रुव चरित्र का वर्णन करते हुए भक्ति व दृढ़ संकल्प का महत्व बताया। ध्रुव की कथा के माध्यम से श्रोताओं को भक्ति और दृढ़ संकल्प को विस्तार से समझाया। व्यास ने कहा कि एक बार उत्तानपाद सिंहासन पर बैठे हुए थे।उनकी दूसरी पत्नी सुनीति का पुत्र ध्रुव खेलते हुए राजा के पास पहुंच गया। उस समय उनकी अवस्था 5 वर्ष की थी।राजा की पत्नी सुरुचि का पुत्रउत्तम राजा उत्तानपाद की गोदी में बैठा हुआ था। ध्रुव राजा की गोदी में चढ़ने का प्रयास करने लगे। सुरुचि को अपने सौभाग्य का इतना अभिमान था कि उसने ध्रुव को डांटा और कहा गोद में चढ़ने का तेरा अधिकार नहीं है। अगर इस गोद में चढ़ना है तो पहले भगवान का भजन करके इस शरीर का त्याग कर और फिर मेरे गर्भ से जन्म लेकर मेरा पुत्र बन। तब तू इस गोद में बैठने का अधिकारी होगा।
ध्रुव को अपनी सौतेली माता के इस व्यवहार पर बहुत क्रोध आया, पर वह कर ही क्या सकता था? इसलिए वह अपनी मां सुनीति के पास जाकर रोने लगा। सारी बातें जानने के बाद सुनीति ने कहा, 'संपूर्ण सुखों को देने वाले भगवान नारायण के अतिरिक्त तुम्हारे दुःख को दूर करने वाला और कोई नहीं है। तू केवल उनकी भक्ति कर। कथा व्यास ने जड़ भरत की कथा में बताया कि जड़भरत का प्रकृत नाम 'भरत' है, जो पूर्वजन्म में स्वायंभुव वंशी ऋषभदेव के पुत्र थे। मृग के छौने में तन्मय हो जाने के कारण इनका ज्ञान अवरुद्ध हो गया था और वे जड़वत् हो गए थे जिससे ये जड़भरत कहलाए। जड़भरत की कथा भागवत पुराण के पंचम काण्ड में आती है। व्यास ने श्रोताओं को जड़ भरत के तीनों जन्मों की कथा विस्तार से सुनाया।उन्होंने कहा कि पहला जन्म ऋषभदेव के 100 पुत्रों में सबसे बड़े पुत्र भरत के नाम से हुआ,जिसके नाम से भारत वर्ष पड़ा।दूसरा जन्म हिरन में आशक्त होने के कारण हिरन योनि में जन्म हुआ और तीसरा जन्म एक ब्राह्मण के रूप में हुआ।
कथा में सुनाया कि श्वणबेलगोला के चन्द्रगिरि नामक पहाड़ी पर भरत की प्रतिमा
शालग्राम तीर्थ में तप करते समय इन्होंने सद्य: जात मृगशावक की रक्षा की थी। उस मृगशावक की चिंता करते हुए इनकी मृत्यु हुई थी, जिसके कारण दूसरे जन्म में जंबूमार्ग तीर्थ में एक "जातिस्मर मृग" के रूप इनका जन्म हुआ था। बाद में पुन: जातिस्मर ब्राह्मण के रूप में इनका जन्म हुआ। आसक्ति के कारण ही जन्मदु:ख होते हैं, ऐसा समझकर ये आसक्ति नाश के लिए जड़वत् रहते थे। इनको सौवीरराज की डोली ढोनी पड़ी थी पर सौवीरराज को इनसे ही आत्मतत्वज्ञान मिला था।श्रोता व्यास की संगीतमय कथा सुनकर भाव विभोर हो गए।कथा के अंत में शिव तांडव झांकी से पंडाल शिव मय हो गया।कथा प्रतिदिन दोपहर एक बजे से शाम 5 बजे तक होती है। समापन 15 जनवरी को हवन यज्ञ के साथ होगा और 16 जनवरी को विशाल भंडारे का आयोजन किया जाएगा।इस मौके पर प्रमुख रूप से दिवाकर तिवारी,गोपाल जी पांडेय,नीरज यादव, आनन्द मिश्रा,दिनकर मिश्रा,रामहित, पप्पू यादव, श्री प्रकाश दुबे,विष्णुकांत शुक्ला,विश्वास शुक्ला,अशोक शुक्ला आदि मौजूद रहे।