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लुप्त हो गई नागपंचमी की दंगल व गंवई खेलों की प्रथा

 

Svnews

मेजा,प्रयागराज।(हरिश्चंद्र त्रिपाठी)

ज्यादा नहीं सिर्फ दो दशक पीछे ही निगाहें डालकर देखा जाए तो नागपंचमी के आगमन को लेकर बच्चों में खासा उत्साह रहता था। क्षेत्र के अखाड़े, स्कूलों में दंगल और प्रदर्शन की तैयारियाँ बारिश शुरू होने के पहले से आरंभ हो जाती थीं। अब यह विधा लुप्त होती जा रही है।आधुनिकता आज सभी जगह हावी हो चुकी है। इसका असर सर्वत्र दिखाई पड़ रहा है। गाँवों में आज भी कुश्ती और अन्य विधाओं के उस्ताद खलीफा हैं जो लोगों को दाँव-पेंच की कला सिखाने आतुर रहते हैं लेकिन आज का युवा इस ओर से पूरी तरह विमुख हो चुका है। ये हालात ताजा नहीं बल्कि वर्षों में निर्मित हुए हैं।

एक दौर था जब घर के बुजुर्ग बच्चों को डटकर खाने और खूब मेहनत करने के लिए प्रेरित करते थे। बारिश शुरू होते ही गांवों में बच्चे छिप छिप कर खाली पड़े खेतों में टोली बनाकर बदी,कबड्डी, कौड़िया निशानी खेला करते थे।आज भी इस संवाददाता को याद है कि नाग पंचमी  से एक माह पहले विभिन्न खेलों की तैयारियां शुरू हो जाती थी और नागपंचमी के दिन सुबह होते ही खेल के मैदान में निकल पड़ते थे और दोपहर 2 बजे तक खेलते रहते थे। इसमें गांव के बुजुर्ग भी साथ देते थे। इसके बाद का दौर आया तो फण्डा ही बदल गया। कहा जाने लगा कि 'खेलोगे, कूदोगे तो होगे खराब, पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नबाब।' यह स्लोगन लोगों के दिलो-दिमाग पर इस कदर घर कर गया कि बुजुर्गों ने बच्चों को सिर्फ पढ़ाई तक ही सीमित करके रख दिया। वर्तमान दौर में बच्चों का ध्यान मोबाइल तक सिमटकर रह गया है और इसके भयावह नतीजे देखकर लोगों ने बच्चों को स्वस्थ रखने दौड़ने खेलने के लिए प्रेरित किया। फर्क इतना है कि अब लोगों का ध्यान पारंपरिक खेलों की बजाए आधुनिक खेलों की तरफ हो गया है।यही वजह है कि आज कुश्ती, दंगल और व्यायाम न केवल स्कूल-कॉलेजों से नदारद हो चुके हैं बल्कि विभिन्न सामाजिक संस्थाओं द्वारा किये जाने वाले आयोजन भी बंद होते जा रहे हैं।

नागपंचमी, जन्माष्टमी और दशहरा आदि कोई भी त्योहार हो तो अखाड़ों में दंगल के प्रदर्शन होते थे।अखाड़ों में सिखाएँ जाने वाले मुगदर घुमाने की प्रक्रिया भी एक महायोग है। इसके नियमित अभ्यास से ब्लड प्रेशर, हृदय रोग, श्वास उखड़ना, शरीर में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा अधिक होना जैसे रोग नहीं होते। इससे शरीर के प्रत्येक अंग का व्यायाम होता है।कुश्ती विधा के विशेष जानकार पत्रकार हरिश्चंद्र त्रिपाठी का कहना है कि शासन द्वारा नागपंचमी की छुट्टी बंद करना एक बड़ा कारण अखाड़ा संस्कृति का समाप्त होना है। उनका कहना है जब शासकीय अवकाश होता था तब स्कूलों और गांवों में जगह-जगह दंगल होते थे। आज के युवा आधुनिक जिमनेजियम में अधिक पैसा खर्च कर शरीर को स्वस्थ रखने के लिए व्यायाम करते हैं।आज भी जहां 4 दशक पूर्व के खेलने वाले लोग हैं। नागपंचमी के दिन कहीं कहीं दोपहर बाद अखाड़ा और कबड्डी खेलते लोग देखने को मिल जाते है।

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