यह राजनीतिक घटना 1977 के लोकसभा चुनाव की है। तब इंदिरा गांधी ने फूलपुर से कांग्रेस की ओर से जगपत दुबे का भी नाम प्रस्तावित किया था। लेकिन, हेमवती नंदन बहुगुणा इसके पक्ष में नहीं थे। वह चाहते थे कि फूलपुर से वीपी ही चुनाव लड़ें। तब राजनीतिक गलियारों में चाणक्य कहे जाने वाले बहुगुणा के इस सियासी तीर पर कई विश्लेषण भी आए थे। उन दिनों कहा जा रहा था कि इस बिसात से एक तो जगपत दुबे किनारे लग जाएंगे और दूसरे इलाहाबाद सीट पर चुनाव लड़ रहे बहुगुणा को विश्वनाथ प्रताप की मदद मिल जाएगी और वह जीत जाएंगे। लेकिन, फूलपुर से चुनाव लड़ने के लिए वीपी सिंह तैयार नहीं हो रहे थे।
उन्होंने तब तक अपने विधानसभा क्षेत्र के बाहर कोई राजनीतिक सक्रियता नहीं रखी थी। जाहिर है कि फूलपुर क्षेत्र में उनके संपर्क सीमित थे। उन्हें लगता था कि वे अभी लोकसभा चुनाव लड़ने लायक ताकत अख्तियार नहीं कर पाए हैं। कांग्रेसी नेता श्याम कृष्ण पांडेय बताते हैं कि जनेश्वर मिश्र की एक चुनौती ने लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए हिचकने वाले वीपी सिंह को मैदान में उतार दिया था। तब जनेश्वर मिश्र ने कहा था कि राजा मांडा उनसे क्या लड़ेंगे ?
अभी राजनीति में तो उनके दूध के भी दांत भी नहीं उग पाए हैं। उनसे लड़ना हो तो इंदिरा गांधी खुद फूलपुर से आएं। श्याम कृष्ण बताते हैं कि वीपी सिंह को जनेश्वर की यह बात काफी नागवार लगी थी और उन्होंने फूलपुर से लड़ने का एलान कर दिया था।
इससे पहले 1969 के उप चुनाव में जनेश्वर मिश्र ने केशव देव मालवीय को हरा कर इस सीट पर कब्जा जमा लिया था। 1977 के लोकसभा चुनाव में कांटे की टक्कर हुई। समाजवादी जनेश्वर मिश्र ने लोकदल के टिकट पर मांडा के राजा और कांग्रेस के प्रत्याशी विश्वनाथ प्रताप सिंह को इस सीट पर पराजित किया। तब राजा मांडा का जनेश्वर मिश्र से चुनाव हारना देशभर में एक बड़ी सियासी घटना के रूप में सुर्खियां बनी थी। लेकिन, तब अब की तरह राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता नहीं थी।
1989 में वीपी सिंह जब चुनाव जीत कर देश के आठवें प्रधानमंत्री बने तब राजनीतिक स्वीकार्यता की उन्होंने मिसाल पेश की थी। राजनीतिक विश्लेषक राम नरेश त्रिपाठी पिंडीवासा बताते हैं कि तब वीपी सिंह ने जनेश्वर मिश्र से प्रभावित होकर उन्हें अपनी सरकार में केंद्रीय मंत्री बना दिया था।