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इस्कॉन के संस्थापक ध्वजवाहक श्रील प्रभुपाद को मिली विश्व गुरु की उपाधि

कुंभ नगर (राजेश शुक्ल/राजेश सिंह)। दुनियाभर में श्हरे कृष्णाश् मूवमेंट के माध्यम से सनातन धर्म का प्रभाव बढ़ाने वाले इस्कान के संस्थापक स्वामी श्रील प्रभुपाद को अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने विश्व गुरु की उपाधि प्रदान की है। श्री निरंजनी अखाड़ा के आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी कैलाशानंद गिरि के शिविर में भव्य कार्यक्रम का आयोजन हुआ।

मंत्रोच्चार के बीच प्रभुपाद की प्रतिमा पर गुलाब की पंखुड़ियों की वर्षा करके विधि-विधान से पट्टाभिषेक किया गया। उक्त दुर्लभ पल के साक्षी अखाड़ा परिषद और इस्कान से जुड़े संतों के साथ उनके अनुयायी बने। हर कोई अभीभूत रहा।

स्वामी कैलाशानंद गिरि ने कहा कि संगम तट पर चल रहे विशाल, भव्य, स्वच्छ और दिव्य महाकुंभ में प्रभुपाद को विश्व गुरु की उपाधि प्रदान करके हम सभी गौरवांवित हैं। उन्होंने अपनी विद्वता, त्याग और समर्पण के बल पर दुनियाभर के लोगों को प्रभु श्रीकृष्ण और राधारानी से जोड़कर उनका जीवन स्तर सुधारने का अनूठा कार्य किया।

इससे सनातन धर्म का प्रभाव पूरी दुनिया में बढ़ा। यह उपाधि उन्हें पहले ही मिल जानी चाहिए थी, लेकिन त्रिवेणी के तट पर हम सबको उस पुनीत कार्य का श्रेय मिलना था। जो सौभाग्यपूर्ण है। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद व मां मनसा देवी ट्रस्ट हरिद्वार के अध्यक्ष श्रीमहंत रवींद्र पुरी ने कहा कि प्रभुपाद को विश्व गुरु की पदवी देना, सूर्य को दीया दिखाने के समान है।

उन्होंने श्रीमद्भगवत गीता पर अद्वितीय कार्य किया। हम सभी अत्यंत हर्ष व प्रसन्नता की अनुभूति कर रहे हैं। आवाहन अखाड़ा के आचार्य महामंडलेश्वर अवधूत अरुण गिरि ने कहा कि प्रभुपाद जी का जीवन अद्भुत था। उनसे किसी की तुलना नहीं हो सकती।

उन्होंने प्रभुपाद के अनुयायियों को दो-दो पौधा लगाने का संकल्प दिलाया। वैश्विक हरे कृष्ण आंदोलन के चेयरमैन और संरक्षक, अक्षय पात्र फाउंडेशन के संस्थापक व चेयरमैन, वृंदावन चंद्रोदय मंदिर के चेयरमैन और इस्कान बेंगलुरु के अध्यक्ष श्रीमधु पंडित दास ने प्रभुपाद को विश्व गुरु की उपाधि से अलंकृत करने पर स्वामी कैलाशानंद व अखाड़ा परिषद के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की।

प्रयाग से शुरू की आध्यात्मिक यात्रा

अभय चरण डे अर्थात प्रभुपाद का जन्म कोलकाता में एक सितंबर 1896 को कोलकाता में हुआ। वह 1923 से 1936 तक प्रयागराज के साउथ मलाका मोहल्ला में रहे। हीवेट रोड में उनकी दवा की दुकान थी। उन्होंने रूप गौड़ीय मठ से जुड़कर आध्यात्मिक यात्रा शुरू की। 14 नवंबर 1977 को उन्होंने वृंदावन में अंतिम सांस ली।

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