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युद्ध के प्रति भारतीय तटस्थता नहीं, बल्कि शांतिपरक पक्षधरता को ऐसे समझिए

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इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध के दौरान भी भारत का कुल मिलाकर यही नजरिया रहा है। चाहे चीन-ताइवान युद्ध की अटकलें हों या ईरान-इजरायल युद्ध की संभावनाएं, अफगानिस्तान सरकार का तालिबान के हाथों पतन हो या तुर्की के इशारे पर सीरिया की सरकार का पतन, भारत ने कभी हस्तक्षेप नहीं किया...

चाहे वैश्विक युद्ध की संभावना की बात हो या विभिन्न देशों के बीच ब्रेक के बाद जारी श्द्विपक्षीय युद्धश् की, भारत ने साफ कर दिया है कि वह ऐसे किसी भी मामले में तटस्थ नहीं, बल्कि शांति का पक्षधर है। बता दें कि अपनी हालिया अमेरिकी यात्रा (12-13 फरवरी 2025) के क्रम में भारत के पीएम नरेंद्र मोदी ने एक सवाल का जवाब देते हुए यह साफ कर दिया है कि ष्रूस-यूक्रेन जंग पर भारत न्यूट्रल यानी तटस्थ नहीं है। भारत शांति का पक्षधर है। इसलिए दुनियादारी के निष्णात लोग श्हश् से श्हलंतश् तक की अटकलें लगा रहे हैं और उनके इस वक्तव्य के अंतर्राष्ट्रीय मायने निकाले जा रहे हैं। 

ऐसा इसलिए कि इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध के दौरान भी भारत का कुल मिलाकर यही नजरिया रहा है। चाहे चीन-ताइवान युद्ध की अटकलें हों या ईरान-इजरायल युद्ध की संभावनाएं, अफगानिस्तान सरकार का तालिबान के हाथों पतन हो या तुर्की के इशारे पर सीरिया की सरकार का पतन, भारत ने कभी हस्तक्षेप नहीं किया। वह हमेशा यही कहता रहा कि हम वसुधैव कुटुंबकम के पक्षधर हैं। पीएम मोदी भी लगातार कहते रहे हैं कि यह युद्ध नहीं, बुद्ध का समय है। जी हां, भगवान बुद्ध!

वैसे दुनिया को यह भी पता है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे अमन-चौन के दुश्मनों से घिरा भारत यदि उनकी बड़ी-बड़ी कायराना व हिन्दू/भारत विरोधी हरकतों को नजरअंदाज करते हुए सीधी कार्रवाई से यदि बचता आया है तो सिर्फ इसलिए कि वह युद्ध नहीं बल्कि शांति चाहता है। इन देशों का जन्म भी क्रमशः भारत और पाकिस्तान के विभाजन से हुआ है। पाकिस्तान ने आजादी हासिल करते ही कश्मीर के सवाल पर भारत से छद्म लड़ाई छेड़ दी। उसके बाद 1965 और 72 में सीधी लड़ाई लड़कर बुरी तरह से मात खाया। 1999 में भी उसने कारगिल में छद्म युद्ध छेड़ा और बुरी तरह से पीटा। उसके इशारे पर थिरकने वाले बंगलादेश की भी कुछ ऐसी ही नियति है। 

उधर, 1962 में भारत के खिलाफ युद्ध लड़ चुका चीन इन दोनों देशों को प्रोत्साहन देता आया है। हालांकि, आजादी के बाद पाकिस्तान की और पाकिस्तान से आजादी हासिल करने के दौरान बंगलादेश की भारत ने दिल खोलकर मदद की, लेकिन दोनों देश भारत से सांप्रदायिक नफरत रखते हैं, इस वास्ते किसी भी हद तक गुजर जाने के लिए ततपर रहते हैं और विदेशी ताकतों की हाथों में खेलते रहते हैं। भारत इसे बखूबी समझता है। वह इन दोनों देशों में निरंतर ब्रेक के बाद जारी हिंदुओं के दमन-उत्पीड़न और हत्याओं के बावजूद इन्हें क्षमा करता आया है, ताकि इनकी सांप्रदायिक फितरत बदलते।

इतना ही नहीं, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव आदि जैसे मौकापरस्त पड़ोसी देशों से जुड़े घटनाक्रमों पर जब आप गौर करेंगे तो भारतीय धैर्य की दाद आपको देनी पड़ेगी। यदि उनके हितों का सवाल नहीं हो तो भारत ने कभी सैन्य हस्तक्षेप इन देशों के खिलाफ नहीं किया। वहीं, दुनियावी मंचों पर अमेरिका, सोवियत संघ (अब रूस), चीन आदि के मामलों में भी न तो किसी का पक्ष लिया, न किसी का विरोध किया। इन बातों का सीधा संदेश है कि जो शांति का दुश्मन है, वो भारत का दुश्मन है। 

इस नजरिए से यदि देखा जाए तो श्आतंकवादश् और उसको प्रोत्साहित करने वाले श्देशश् या उनका गुट भी भारत के दुश्मन हैं। पूरी दुनिया में हथियारों की होड़ पैदा करके एक दूसरे पर कोहराम मचाने वाले देश या उनके संरक्षक भी भारत के दुश्मन हैं।.....और शायद इसलिए भी भारत हथियारों की होड़ में शामिल हो चुका है, क्योंकि लोहा को लोहा ही काटता है। भारत का बढ़ता रक्षा कारोबार भी उसके इसी नजरिए का द्योतक है। 

सीधा सवाल है कि समकालीन विश्व में शांति का दुश्मन कौन है? तो सीधा जवाब होगा कि ट्रंफ के नेतृत्व में अमेरिका भले ही श्चंद्रायण व्रतश् करने का संकेत लगातार दे रहा है, लेकिन मौजूदा वैश्विक परिस्थितियों के लिए कहीं न कहीं उसकी नीतियां ही जिम्मेदार रही हैं। हालांकि, भारत से मित्रता के चलते अब उसका भी स्वभाव बदल रहा है।जबकि चीन ऐसा करने को राजी नहीं है। अपने साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा वश चीन अभी जो दुनियावी तिकड़म बैठा रहा है, देर-सबेर उस पर ही भारी पड़ेंगी, क्योंकि भारत की नीतियां ही ऐसी परिपक्व हैं।

वहीं, यह भी कड़वा सच है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर रूस ने अब तक जो कुछ भी किया है, वह अमेरिकी रणनीतियों से अपने बचाव में किया है या फिर उसे संतुलित रखने के लिए किया है। जबकि चीन जो कुछ भी कर रहा है, वह उसकी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा है। यह भी अजीबोगरीब है कि दुनिया को आतंकवाद और आतंकवादियों का निर्यातक देश पाकिस्तान (अब बंगलादेश भी) अब अमेरिका की बजाय चीनी गोद में खेल रहा है। 

यदि आप अमेरिका, रूस, चीन की बात छोड़ दें तो जापान, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, इजरायल, जर्मनी, ग्रेट ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, ईरान, तुर्की जैसे दूसरी पंक्ति के बहुत सारे देश हैं, जो अपनी अपनी सुविधा के अनुसार नाटो या सीटो में शामिल होते रहे। लेकिन भारत हमेशा ही गुटनिरपेक्ष रहा और गुटनिरपेक्षता की नीति को बढ़ावा दिया। यह गुटनिरपेक्षता की नीति ही शांति की गारंटी है।

दुनिया प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के संतापों को झेल चुकी है। लेकिन तीसरा विश्वयुद्ध यदि दस्तक देते देते सहम जाता है तो उसके पीछे भारत के नेतृत्व में लामबंद तीसरी दुनिया के देश ही हैं, जो किसी की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा के समक्ष घुटने टेकने को तैयार नहीं हैं, बल्कि शांति का पैगाम देते आए हैं। जी-7, जी-20 आदि में भारत की बढ़ती भूमिका इसी बात की परिचायक है। यदि भारत ने चीनी नेतृत्व वाले श्ब्रिक्सश् की सदस्यता ली है तो उसके पीछे भी पुनीत भावना यही है। वहीं, अमेरिकी नेतृत्व वाले श्क्वाडश् में भारत की मौजूदगी दुनियावी शांति से ही अभिप्रेरित है।

इसलिए दुनिया के युद्धोन्मत देशों को यह समझ लेना चाहिए कि अंतर्राष्ट्रीय जरूरतों वश भारत उनका मित्र देश भले ही है, लेकिन उनके यौद्धिक मिजाजों का सम्बर्द्धक बनने में उसकी कोई भी दिलचस्पी नहीं है। चाहे अमेरिका हो या रूस, दोनों देशों पर यह बात लागू होती है। भारत हिंसा की दृष्टि से अभिशप्त दुनिया को श्बुद्धम शरणम गच्छामिश्, वसुधैव कुटुंबकम एवं सत्य-अहिंसा का संदेश देना चाहता है और इसी दिशा में मजबूती पूर्वक वह अग्रसर है।

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