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भाजपा को रोकने के लिए भ्रम की राजनीति, स्टालिन केंद्र-राज्य संबंधों में बना रहे तनाव

 

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राष्ट्रीय दल होने के कारण भाजपा को तमिलनाडु केरल तेलंगाना कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में अपना विस्तार करना ही चाहिए। स्टालिन के डर का यह भी एक कारण है लेकिन उनका डर निराधार है। त्रिभाषा फार्मूला न तो किसी राज्य पर हिंदी थोपने का प्रयास कर रहा है न ही परिसीमन से किसी भी राज्य का लोकसभा में प्रतिनिधित्व कम होने जा रहा है...

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन परिसीमन और त्रिभाषा फार्मूले को लेकर केंद्र सरकार पर आक्रामक हैं। वह दक्षिणी राज्यों को साथ लेकर मोदी सरकार को घेरना चाहते हैं। वह भ्रम फैला रहे हैं कि परिसीमन से तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में लोकसभा की सीटें घट जाएंगी।

वे त्रिभाषा फार्मूले को लेकर तमिलनाडु पर हिंदी थोपे जाने का भी आरोप लगा रहे हैं, जो उनकी राजनीतिक बेचौनी को दर्शाता है। तमिलनाडु में 1967 से कांग्रेस का जो पराभव शुरू हुआ, वह दो क्षेत्रीय द्रविड़ दलों- द्रमुक और अन्नाद्रमुक के वर्चस्व के साथ खत्म हुआ। इसकी वजह वहां 1965 से शुरू हिंदी विरोधी आंदोलन था।

आज उसी के सहारे स्टालिन आगामी विधानसभा चुनावों में अपनी वापसी का सपना देख रहे हैं। तमिलनाडु में द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बीच सत्ता परिवर्तित होती रही है। इस हिसाब से 2026 में अन्नाद्रमुक की बारी दिखती है, लेकिन जयललिता की मृत्यु के बाद वह कमजोर पड़ गई है, जबकि मोदी के नेतृत्व में भाजपा विकल्प के रूप में उभरने की कोशिश कर रही है।

भाजपा को पूर्व पुलिस अधिकारी और लोकप्रिय नेता अन्नामलाई का नेतृत्व प्राप्त है। 2024 लोकसभा चुनावों में भाजपा राज्य में 11.3 प्रतिशत वोट पाकर तीसरी शक्ति बनकर उभरी। पार्टी केवल 23 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ी और उन सीटों पर उसे 19.6 प्रतिशत वोट मिले। भले ही भाजपा कोई सीट नहीं जीत पाई, पर कन्याकुमारी और कोयंबटूर में दूसरे स्थान पर थी।

स्टालिन को भय है कहीं अन्नाद्रमुक का एक धड़ा भाजपा की ओर न खिसक जाए और 2026 में भाजपा की सरकार न बन जाए। उनका यह भय निराधार नहीं, क्योंकि बीते दिनों अन्नाद्रमुक नेता पलानीसामी ने अमित शाह से मुलाकात की। यह मुलाकात यह भी बताती है कि अन्नाद्रमुक को स्टालिन के हिंदी विरोध में कोई दम नहीं दिखाई देता। स्टालिन ने दो मोर्चे खोल रखे हैं।

प्रथम, वे त्रिभाषा फार्मूले को तमिलनाडु पर हिंदी थोपने का प्रयास बता रहे हैं। द्वितीय, परिसीमन पर भ्रम फैला रहे कि इससे तमिलनाडु और दक्षिणी राज्यों की संसद में सीटें घट जाएंगी। ये दोनों वास्तविकता से परे और राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित हैं। त्रिभाषा फार्मूले के तहत छात्रों को पांचवीं तक मातृभाषा में शिक्षा मिलेगी। छह से दस तक तीन भाषाओं अर्थात मातृभाषा, कोई भारतीय भाषा और अंग्रेजी का अध्ययन करना होगा।

कक्षा 11 से 12 तक स्कूल चाहे तो कोई विदेशी भाषा जैसे जर्मन, फ्रेंच, स्पेनिश आदि पढ़ने का विकल्प दे सकता है। इसमें कहीं हिंदी पढ़ने की अनिवार्यता नहीं, पर जनता में क्षेत्रीयता-भाषा को आधार बना भ्रम फैलाना आसान है। इसी कारण आंध्र प्रदेश के उपमुख्यमंत्री पवन कल्याण ने पूछा है कि पैसा कमाने के लिए तमिल फिल्में हिंदी में क्यों डब की जाती हैं? क्यों वे हिंदी से घृणा करते हैं?

परिसीमन पर भी स्टालिन का आरोप भ्रमात्मक है। अभी जनगणना होनी है। उसमें कम से कम एक वर्ष का समय लगेगा और 2026 के अंत तक उसके आंकड़े मिलेंगे। परिसीमन का काम 2027 के पहले शुरू नहीं हो सकेगा। सर्वप्रथम कानून द्वारा पांचवें परिसीमन आयोग का गठन होगा, फिर आयोग अपनी कार्यप्रणाली हेतु नियम बनाएगा। फिर परिसीमन का काम शुरू होगा।

इस बार परिसीमन काफी चुनौतीपूर्ण होगा, क्योंकि परिसीमन आयोग को लोकसभा की सीटें बढ़ानी हैं, जिससे प्रत्येक निर्वाचन-क्षेत्र को एक नया आकार प्रकार मिलेगा। नारी शक्ति वंदन अधिनियम 2023 के अनुसार लोकसभा और सभी विधानसभाओं की कुल सीटों में एक तिहाई सीटें महिलाओं हेतु आरक्षित करनी पड़ेंगी।

विगत 50 वर्षों से पूर्ण परिसीमन नहीं हुआ है, जिससे आज अनेक सांसद लगभग 25-30 लाख जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इससे लोकतंत्र की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। गृहमंत्री अमित शाह स्पष्ट कर चुके हैं कि परिसीमन से किसी भी राज्य की सीटें लोकसभा में कम नहीं होंगी। संसद को कुछ ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए कि जिन राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण में अच्छा काम किया है, उन्हें पुरस्कृत करने हेतु कुछ अतिरिक्त सीटें आवंटित की जाएं।

यह भी हो सकता है कि लोकसभा के वर्तमान सीट आवंटन को यथावत रखा जाए और परिसीमन से बढ़ी सीटों को नवीनतम जनसंख्या के अनुपात में राज्यों को आवंटित किया जाए। परिसीमन एक विधिक राजनीतिक प्रक्रिया है। इसमें परिसीमन आयोग को कई समझौते करने पड़ते हैं। स्टालिन द्वारा इसे मुद्दा बनाना परिसीमन आयोग पर राजनीतिक दबाव बनाने जैसा है।

प्रधानमंत्री मोदी कर्नाटक के बाद तमिलनाडु में भाजपा को सशक्त करने हेतु प्रयासरत हैं। उन्होंने इसके लिए तमिल प्रतीकों का सहारा लिया है। 28 मई, 2023 को उन्होंने नई संसद में तमिल प्रतीक ‘सेंगोल’ की स्थापना की, जो चोल साम्राज्य में राजसत्ता का प्रतीक माना जाता था। मोदी ने उत्तर और दक्षिण, काशी और तमिल संस्कृति को जोड़ने हेतु दिसंबर 2022 से ‘तमिल संगमम’ शुरू किया, जिसका तीसरा संस्करण हाल में वाराणसी में हुआ।

मोदी सरकार ने ट्रेनों के नाम भी तमिल प्रतीकों पर रखे हैं, जैसे ‘सेंगोल एक्सप्रेस।’ वह अपने भाषणों में प्रायः तमिल कवि और दार्शनिक तिरुवल्लुवर और उनकी रचना ‘थिरक्कुरल’ का उल्लेख करते हैं। मोदी का उद्देश्य देश को एकता के सूत्र में बांधने का है। इसके सह उत्पाद के रूप में भाजपा को उसका राजनीतिक लाभ मिल सकता है।

राष्ट्रीय दल होने के कारण भाजपा को तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, कर्नाटक, और आंध्र प्रदेश में अपना विस्तार करना ही चाहिए। स्टालिन के डर का यह भी एक कारण है, लेकिन उनका डर निराधार है। त्रिभाषा फार्मूला न तो किसी राज्य पर हिंदी थोपने का प्रयास कर रहा है, न ही परिसीमन से किसी भी राज्य का लोकसभा में प्रतिनिधित्व कम होने जा रहा है।

स्टालिन केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव बढ़ाकर अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों में राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं, लेकिन क्या वे ऐसा कर पाएंगे? क्या वह मोदी और भाजपा को तमिलनाडु में रोक पाएंगे? स्पष्ट है कि यह समय ही बताएगा।

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