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सांप्रदायिक तनाव वाला कृत्य लोक व्यवस्था का उल्लंघन हैः हाईकोर्ट

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प्रयागराज (राजेश सिंह)। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत मऊ निवासी शोएब की नजरबंदी बरकरार रखी है। न्यायमूर्ति जेजे मुनीर और न्यायमूर्ति संजीव कुमार की खंडपीठ ने उसकी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका खारिज करते हुए कहा है कि कोई भी आपराधिक कृत्य यदि सांप्रदायिक तनाव का कारण बनता है और जीवन की गति को अस्त-व्यस्त करता है तो वह केवल कानून-व्यवस्था ही नहीं, बल्कि लोक व्यवस्था का उल्लंघन है।

याची ने जिलाधिकारी मऊ के आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। न्यायालय ने कहा कि यद्यपि आरोपित प्रारंभिक हमला कानून-व्यवस्था के उल्लंघन का साधारण मामला प्रतीत हो सकता है, लेकिन इसका सीधा परिणाम व्यापक दंगा, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान और सांप्रदायिक तनाव था। इसलिए यह मामला पूरी तरह से श्सार्वजनिक व्यवस्थाश् के दायरे में आता है। कोर्ट प्रशासन के तथ्यात्मक निष्कर्ष को अपील की तरह नहीं सुन सकती। तथ्य की संपुष्टि प्रशासन का निष्कर्ष है।

मामले के अनुसार 15 नवंबर, 2024 को घोसी क्षेत्र में याची ने अपनी बाइक से सुक्खू की बाइक में टक्कर मार दी। फिर मौखिक विवाद के बाद याची ने साथियों को बुलाया और उनमें एक ने सुक्खू पर चाकू से हमला कर उसकी गर्दन और कंधे पर गंभीर चोटें पहुंचाई। मामला केवल मारपीट तक ही सीमित नहीं था। जैसे ही पीड़ित को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाया गया, शोएब की ओर से बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा हो गए और दोनों पक्षों के बीच तीखी झड़प और पथराव शुरू हो गया। अस्पताल में अफरा-तफरी मच गई। भीड़ ने अस्पताल के दरवाजे, खिड़कियां और अन्य कीमती उपकरण भी क्षतिग्रस्त कर दिए, जिससे चिकित्सा सेवाएं बाधित हुईं। इसके बाद 200 से अधिक लोगों की भीड़ ने घोसी-दोहरीघाट मुख्य मार्ग जाम कर दिया। पुलिस ने हस्तक्षेप करने की कोशिश की तो नारेबाजी करते हुए पुलिस वाहनों को क्षतिग्रस्त कर दिया। भीड़ ने आस-पास की दुकानों, धार्मिक स्थलों और सार्वजनिक संपत्ति को भी ईंट-पत्थर फेंककर नुकसान पहुंचाया। इससे सार्वजनिक व्यवस्था बिगड़ गई।

अभियोजन के अनुसार उपद्रव में सर्किल ऑफिसर और थाना प्रभारियों सहित कई पुलिसकर्मी गंभीर रूप से घायल हो गए। खंडपीठ ने कहा, याची के कृत्य के कारण सभी घटनाएं घटीं। इसने हिंदू समुदाय को भी क्रोधित कर दिया। हिरासत को चुनौती देते हुए याची ने कहा कि सार्वजनिक व्यवस्था को प्रभावित करने वाली किसी भी घटना से उसका कोई लेना-देना नहीं है। प्राथमिकी में उसके खिलाफ हिंसा के लिए भीड़ का नेतृत्व करने का कोई आरोप नहीं है। यह घटना कानून-व्यवस्था के साधारण उल्लंघन का एकमात्र मामला था और जब भीड़ ने हिंसा की, तब वह हिरासत में था और उसे अस्पताल ले जाया गया था। उस पर सामान्य दंडात्मक कानूनों के तहत मुकदमा चलाया जा सकता था। इसलिए रासुका लगाने की कोई आवश्यकता नहीं थी।

कोर्ट ने कहा, यह सच है कि याची और उसके साथियों द्वारा मोटरसाइकिलों में टक्कर लगने की एक छोटी सी घटना को लेकर सुक्खू पर चाकू से हमला करने का कृत्य कानून-व्यवस्था के उल्लंघन का एक साधारण मामला हो सकता है। लेकिन उक्त कृत्य का सीधा परिणाम यह हुआ कि दो समुदायों के बीच तनाव फैल गया, जिसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक व्यवस्था बिगड़ गई। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि निवारक निरोध के मामलों में न्यायिक समीक्षा की सीमित गुंजाइश है। कहा, न्यायालय निरोध प्राधिकारी की व्यक्तिपरक संतुष्टि की सत्यता पर तब तक निर्णय नहीं देता जब तक कि वह अप्रासंगिक विचारों पर आधारित न हो या श्स्पष्ट रूप से बेतुकाश् न हो। पीठ ने पाया कि रासुका के आधार सुविचारित थे।

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