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आज है तुलसी विवाह, इस तरह करें शालिग्राम-तुलसी पूजन, शुभ मुहूर्त, पूजा विधि और भोग

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प्रयागराज (राजेश शुक्ल/राजेश सिंह)। 1 नवंबर, शनिवार को देवउठनी एकादशी पर भगवान विष्णु के शयन से जाग्रत होने के अगले दिन आज यानी रविवार, 2 नवंबर 2025 को तुलसी विवाह का पर्व पूरी श्रद्धा और भक्ति भाव के साथ मनाया जा रहा है। पौराणिक मान्यता है कि इस दिन चार माह के शयन के बाद जाग्रत होने वाले भगवान विष्णु का विवाह देवी तुलसी के साथ संपन्न होता है। ज्नसेप टपअंी ज्ञपे क्पद भ्ंप तुलसी विवाह के साथ ही सनातन धर्म में मांगलिक कार्यों का शुभ मुहूर्त और विवाह उत्सव शुरू हो जाता है। ज्नसेप टपअंी 2025 क्ंजम तुलसी विवाह को धार्मिक दृष्टि से अत्यंत शुभ और मंगलदायक माना जाता है। 

रविवार को संध्या समय तुलसी विवाह पारंपरिक रीति-रिवाजों से घर-घर में किया जाएगा। विधान अनुसार सबसे पहले तुलसी जी की मंगनी, फिर फेरे और आरती के साथ तुलसी विवाह संपन्न होगा। इस दिन श्रद्धालु अगर उपवास रखकर तुलसी विवाह में शामिल हों और ज्नसेप च्नरं तुलसी पूजा करें तो उनको मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है और वैवाहिक जीवन सुखी होता है। पंडित-पुरोहित बताते हैं कि ज्नसेप टपअंी ज्ञंइ भ्ंप 2025 देवउठनी एकादशी के अगले दिन देव उठान द्वादशी को तुलसी माता का विवाह शालीग्राम स्वरूप वाले भगवान विष्णु के साथ विधिपूर्वक कराया जाता है। ज्नसेप टपअंी तुलसी विवाह का पर्व हमारे घर-परिवार में सुख, समृद्धि और सौभाग्य को बढ़ाता है। तुलसी विवाह में सहभागी बनने से मानव जीवन में सकारात्मक उर्जा का संचार होता है।तुलसी विवाह आध्यात्मिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। 2 नवंबर, रविवार को सुबह 7रू31 बजे से कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वादशी तिथि प्रारंभ होगी और अगले दिन सोमवार, 3 नवंबर को सुबह 5रू07 बजे तक शुभ मुहूर्त माना गया है। इस दौरान भगवान विष्णु और माता तुलसी की पूजा करने से विशेष कृपा प्राप्त होती है। 

ज्योतिषाचार्य पंडित कमला शंकर उपाध्याय ने बताया कि देवोत्थान एकादशी को श्रीहरि के जाग्रत होने के बाद द्वादशी तिथि को तुलसी और शालिग्राम का विवाह कराने की परंपरा है, जिसे सामान्य विवाह की तरह धूमधाम से निभाया जाता है। धार्मिक मान्यता है कि कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वादशी को तुलसी पूजन और तुलसी विवाह कराने से कन्यादान के समान फल की प्राप्ति होती है। कार्तिक मास में तुलसी विवाह का विशेष महत्व माना गया है। कार्तिक शुक्ल नवमी को विवाह का शुभ मुहूर्त उत्तम माना जाता है। श्रद्धालु मानते हैं कि तुलसी, जिन्हें विष्णु प्रिया कहा गया है, उनके विवाह से घर परिवार पर शुभता और समृद्धि का आशीर्वाद प्राप्त होता है। देवोत्थान एकादशी पर शनिवार को शहर व ग्रामीण अंचलके मंदिरों और घर-घर में भगवान विष्णु (शालिग्राम) की विधिवत पूजा-अर्चना की गई। चार महीने के शयन के बाद भगवान विष्णु को जगाने की परंपरा के तहत श्रद्धालुओं ने अल्पना (चौक) बनाकर ईख खड़ा कर शालिग्राम भगवान को जागृत किया और विशेष भोग लगाया। परंपरा के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी से भगवान विष्णु योग निद्रा में चले जाते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को देवोत्थान होता है। इसी के साथ धार्मिक आयोजनों का शुभारंभ माना जाता है।

अल्पना पर उकेरे गए प्रतीक

भक्तों ने अरवा चावल पीसकर चौक (अल्पना) बनाया। इसमें घर, भंडार-घर, हल, चौंकी, सीकर, खड़ाऊं, पैर और पशुधन से जुड़े प्रतीक उकेरे गए। भंडारण स्थल में 12 खाने बनाकर विभिन्न अन्न से उसे भरा गया। रात्रि के समय 3, 5 या 7 की संख्या में ईख खड़ी कर भगवान को जगाने की रस्म निभाई गई।

मौसमी उपज का भोग

पूजा में धूप, दीप, अगरबत्ती, अक्षत, चंदन, फूल एवं फल अर्पित किए गए। शालिग्राम भगवान को नया गुड़, दूध, दही, ईख, सुथनी, कन्ना (कच्चू), शकरकंद सहित मौसमी उपज का भोग लगाया गया। शहर के रामजानकी मंदिर, सूजागंज सहित कई मंदिरों में भी विशेष पूजन और भोग का आयोजन हुआ। दिनभर के उपवास के बाद रात्रि में भगवान को जागरण कर देव उठाने की परंपरा संपन्न की गई।

चावल के पीठार से महिलाओं ने किया अरिपन

शनिवार की रात्रि में कार्तिक शुक्ल पक्ष के देवोत्थान एकादशी पूजा धार्मिक अनुष्ठान के बीच पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ मनाई गई। महिलाएं आंगन में चावल के पीठार से अरिपन कीं। मालूम हो कि हिंदू धर्म में देवोत्थान एकादशी का बहुत अधिक महत्व होता है। देवोत्थान एकादशी की तिथि भगवान विष्णु को समर्पित होती है।इस दिन विधि-विधान से भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना की जाती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार देवोत्थान एकादशी व्रत रखने से भगवान विष्णु की विशेष कृपा प्राप्त होती है।

शालिग्राम स्वरूप में भगवान विष्णु

देवोत्थान एकादशी और द्वादशी का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि इसी दिन भगवान विष्णु के शालिग्राम स्वरूप की तुलसी से विवाह की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। हिन्दू धर्म में देवोत्थान एकादशी के दिन देवी-देवताओं के जाग्रत रूप में आने के बाद शादी-विवाह, उपनयन, मुंडन संस्कार, द्विरागमन, गृह प्रवेश, भूमि पूजन सहित अन्य शुभ कार्यों के दौर की शुरुआत होती है। महिलाओं के बनाए गए अरिपन पर रात्रि में पान,सुपारी, फूल के अलावे इस क्षेत्र में उपजने वाले विभिन्न तरह के अनाज,फल व सब्जी भी चढाने का रिवाज है।

देवउठनी एकादशी को जाग्रत हुए भगवान विष्णु

पौराणिक कथा के अनुसार भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु ने दैत्य शंखासुर का वध किया था। इस दौरान दैत्य शंखासुर और भगवान विष्णु के बीच लंबे समय तक युद्ध चला था। युद्ध समाप्त होने के उपरांत भगवान विष्णु थककर क्षीरसागर में जाकर सो गए। वे कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को गहरे नींद से जगे। दूसरी ओर शास्त्रों के अनुसार भगवान अन्य एकादशी के दिन सोते है। जबकि देवोत्थान एकादशी के दिन जागते हैं। 

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